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आयारदसा
सेय पमाणपत्ते होउ "अलाहि", इ य वत्तव्वं सिया । से किमाहु भंते !
asi अट्टो गिलाणस्स,
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सिया णं एवं वयंतं परो वइज्जा - "पडिगाह अज्जो ! पच्छा तुमं भोक्खसि वा, पाहिसि वा ।"
एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए,
नो से कप्पइ गिलाणनीसाए पडिगाहित्तए १८ / १७
छठी ग्लान- परिचर्या समाचारी
वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थों में से वैयावृत्य करने वाला निर्ग्रन्थ आचार्य से पूछे कि
हे भगवन् ! आज किसी ग्लान निर्ग्रन्थ को विकृति (दूध आदि) से प्रयोजन है ? ( विकृति की आवश्यकता है ? )
आचार्य कहे - हाँ प्रयोजन है ।
तदनन्तर वैयावृत्य करने वाले निर्ग्रन्थ ग्लान निर्ग्रन्थ से पूछे कि तुम्हें आज किस विकृति की कितनी मात्रा आवश्यक है ?
ग्लान निर्ग्रन्थ विकृति का नाम और प्रमाण बता दे तब वैयावृत्य करने वाला निर्ग्रन्थ आचार्य से कहे कि अमुक विकृति अमुक परिमाण में निर्ग्रन्थ के लिए आवश्यक है ।
वैयावृत्य करने वाले निर्ग्रन्थ से आचार्य कहे – ग्लान निर्ग्रन्थ के लिए जितनी विकृति आवश्यक है उतनी ही ले आओ ।
वैयावृत्य करने वाला निर्ग्रन्थ गृहस्थ के घर जाकर विकृति की याचना करे – तथा आवश्यकतानुसार प्राप्त होने पर 'बस पर्याप्त है' इस प्रकार हे ।
गृहस्थ यदि कहे - " हे मदन्त ? आप ऐसा क्यों कहते हैं ?
तब वैयावृत्य करने वाले निर्ग्रन्थ को इस प्रकार कहना चाहिए " ग्लान साधु के लिए इतनी ही विकृति पर्याप्त है ।"
इस प्रकार कहने पर भी यदि गृहस्थ कहे कि " हे आर्य ! अभी और ग्रहण करो !"
यदि ग्लान निर्ग्रन्थ के उपयोग में आने के बाद शेष रह जावे तो " आप उपयोग में ले लेना ।"