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आयारदसा
पांचवीं विकृति-त्याग समाचारी
वर्षावास रहे हुए हृष्ट पुष्ट, प्रसन्न, निरोग एवं सशक्त शरीर वाले निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थियों को इन पांच विकृतियों का आहार करना नहीं कल्पता है, यथा१. क्षीर (दूध ), २. दही, ३. घृत, ४. तेल और ५. गुड़ ।
विशेषार्थ - स्थानांग अ० ४ उ० १ सूत्र २७४ में ४ गोरस विकृतियों के चार स्नेह विकृतियों के और चार महाविकृतियों के नाम दिए गये हैं ।
(क) गोरस विकृतियों के नाम
१. दूध, २. दही, ३. घी और ४. नवनीत ।
स्नेह विकृतियों के नाम
१. तेल, २. घृत, ३. वसा और ४. नवनीत ।
चार महाविकृतियों के नाम
१. मधु, २. मद्य, ३. माँस और ४. नवनीत ।
(ख) स्थानांग (अ० ६ सूत्र ६७४ ) में नो विकृतियों के नाम दिए हैं ।
१. दूध, २. दही, ३. नवनीत, ४. घृत, ५. तेल, ६. गुड़, ७. मधु, ८. मद्य और C. माँस ।
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(ग) आवश्यक निर्युक्ति ( गाथा १६००, १६०१ ) में दश विकृतियों के नाम दिए गये हैं ।
उनमें पूर्वोक्त के अतिरिक्त एक दसवीं "पक्वान्न " विकृति है ।
इन दश विकृतियों के दो विभाग हैं
१. प्रशस्त और २ अप्रशस्त
प्रशस्त विकृतियों के नाम
१. दूध, २. दही, ३. नवनीत, ४. घृत, ५. गुड़, ६. तेल, ७. पक्वान्न । अप्रशस्त विकृतियों के नाम
१. मधु, २. मद्य, ३. माँस ( - निसीह भाष्य गाथा ३१६६ ).
मांसादि चार महाविकृतियों के खाने का निषेध इसलिए है कि माँस मद्यादि में निरन्तर सम्मूछिम जीवों की उत्पत्ति होती रहती है । यथा
गाहा -- मज्जे महुम्मि मंसम्हि णवणीयंमि चउत्थए । उप्पज्जंति अणंता, तव्वण्णा तत्थ जंतुणो ॥ १ ॥
प्रशस्त विकृतियाँ भी दो प्रकार की हैं ।