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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध की। जाव-यावत्। अन्नयरंसि वा अन्य किसी निर्दोष भूमि की अथवा। तहप्पगारंसि-तथा प्रकार की भूमि की। पडिलेहिय २-प्रतिलेखना कर के भली-भांति अवलोकन करके। पमजिय पमजिय-अच्छी तरह से प्रमार्जित करे।तओ-तदनन्तर।संजयामेव-संयत-साधुयल पूर्वक उक्त-कथित तृण आदि से शरीर को।आमजिज वा-एक बार मसले अथवा। जाव-यावत्। पयाविज वा-बार-बार धूप में सुखाये।
मूलार्थ-साधु या साध्वी को गृहपति आदि के कुल में जाते समय मार्ग के मध्य में खेत की क्यारियां,खाई कोट, तोरण, अर्गला और अर्गलपाशक पड़ता हो तो अन्य मार्ग के होने पर वह उस मार्ग से न जाए भले ही वह मार्ग सीधा क्यों न हो। क्योंकि केवली भगवान कहते हैं कि यह कर्मबन्ध का मार्ग है। क्योंकि वह भिक्ष उस मार्ग से जाते हुए कांप जाएगा या उसका पांव फिसल जाएगा या वह गिर जाएगा, तब उस मार्ग में कांपते हुए, फिसलते हुए या गिरते हुए उस भिक्षु का शरीर विष्ठा से, मूत्र से, श्लेष्म से, नाक के मल से, वमन से, पित्त से, राध से, शुक्र से और रुधिर से उपलिप्त हो जाए तो ऐसा होने पर वह भिक्षु अपने शरीर को सचित्त मिट्टी से, स्निग्ध मिट्टी से, सचित्त शिला से और सचित्त शिलाखंड से अर्थात् चेतना युक्त पत्थर के टुकड़े से, या घुण वाले काष्ठ से, जीव प्रतिष्ठित-जीव युक्त काष्ठ से एवं अण्डयुक्त अथवा प्राणी युक्त या जालों आदि से युक्त काष्ठ आदि से अपने शरीर को एक बार या अनेक बार मसले नहीं, एक बार या अनेक बार घिसे नहीं, पुंछे नहीं तथा उवटन की भांति मले नहीं, तथा एक बार या अनेक बार धूप में सुखाए . नहीं, अपितु वह भिक्षु पहले ही सचित्त रज आदि से रहित तृण, पत्र, काष्ठ-कंकड आदि की याचना करे। याचना करके वह एकान्त स्थान में जाए और वहां अग्नि आदि के संयोग से जो भूमि प्रासुक हो गई हो अर्थात् अग्नि दग्ध होकर जो भूमि अचित्त बन गई हो, उस जगह की या अन्यत्र उसी प्रकार की भूमि की प्रतिलेखना करके यत्नपूर्वक अपने शरीर को मसले यावत् बार-बार धूप में सुखाकर शुद्ध करे।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को विषम-मार्ग से भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए। यदि रास्ते में खड्डे, खाई आदि हैं, सीधा एवं सम-मार्ग नहीं है, तो अन्य मार्ग के होते हुए साधु को उस मार्ग से नहीं जाना चाहिए। क्योंकि उस मार्ग से जाने पर कभी शरीर में कम्पन होने या पैर आदि के फिसलने पर वह साधु गिर सकता है और उसका शरीर मल-मूत्र या नाक के मैल या गोबर आदि से लिप्त हो सकता है और उसे साफ करने के लिए सचित्त मिट्टी, सचित्त लकड़ी या सचित्त पत्थर या जीव-जन्तु से युक्त काष्ठ का प्रयोग करना पड़े। इससे अनेक जीवों की विराधना होने की संभावना है। अतः साधु को ऐसे विषम मार्ग का त्याग करके अच्छे रास्ते से जाना चाहिए। यदि अन्य मार्ग न हो और उधर जाना आवश्यक हो तो उसे विवेक पूर्वक उस रास्ते को पार करना चाहिए। और विवेक रखते हुए भी यदि उसका पैर फिसल जाए और वह गिर पड़े तो उसे अपने अशुचि से लिपटे हुए अंगोपाङ्गों को सचित्त मिट्टी से साफ न करके, तुरन्त अचित्त काष्ठ-कंकर की याचना करके एकान्त स्थान में चले जाना