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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध परन्तु , वृत्तिकार का यह कथन विचारणीय है क्योंकि आगम में लिखा है कि प्रतिमाधारी मुनि को मल-मूत्र की बाधा हो तो उसे रोकना नहीं चाहिए। परन्तु, पहले प्रतिलेखन की हुई (देखी हुई) भूमि पर उसका त्याग करके यथाविधि अपने स्थान पर आकर स्थित हो जाना चाहिए। इसी तरह मोक प्रतिमाधारी मुनि के लिए भी बताया गया है कि यदि उसे रात्रि को मूत्र की बाधा हो जाए तो यह उसे रोक कर न रखे। ज्ञाता सूत्र में भी उल्लेख मिलता है कि जिस समय मेघ मुनि ने श्रमण भगवान् महावीर से आज्ञा प्राप्त करके पादपोपगमन संथरा किया था, उस समय उन्होंने सब से पहले मल-मूत्र के त्याग करने की भूमि का प्रतिलेखन किया था। साधु समाचारी में भी यह बताया गया है कि मुनि दिन के चतुर्थ भाग में मल-मूत्र त्याग करने की भूमि का प्रतिलेखन करे । यदि कोई मुनि उस का प्रतिलेखन नहीं करता है, तो उसके लिए प्रायश्चित (दंड) का विधान है।
इन आगम प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि किसी भी समय में मल-मूत्र के त्याग करने का निषेध नहीं है। क्योंकि इसके रोकने से अनेक बीमारियां हो सकती हैं और उनके कारण होने वाली अयतना एवं संकल्प-विकल्प उस समय रात के ओस एवं वर्षा आदि की अयतना से भी अधिक अहितकर हो सकते हैं। अतः वर्षा आदि के प्रसंग पर भी मुनि विवेक एवं यतना पूर्वक मल-मूत्र का त्याग करने जा सकता है।
___ यह प्रश्न हो सकता है कि जिनकल्पी मुनि होते हैं, पर उन में साध्वी नहीं होती और प्रस्तुत सूत्र में साधु-साध्वी दोनों शब्दों का उल्लेख है। इसका समाधान यह है कि यह उल्लेख समुच्चय रूप से हुआ है। पिछले सूत्रों में साधु-साध्वी का उल्लेख होने के कारण इस सूत्र में भी उसे दोहरा दिया गया है। परन्तु, यहाँ प्रसंगानुसार साधु का ही ग्रहण करना चाहिए। वृत्तिकार ने भी इस पाठ को जिनकल्पी मुनि से संबन्धित बताया है। इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत सूत्र में जिनकल्पी साधु का प्रसंग ही युक्तिसंगत प्रतीत होता है।
कुछ कारणों से साधु को अपने भंडोपकरण लेकर आहार आदि को नहीं जाना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- से भिक्खू अह पुण एवं जाणिज्जा-तिव्वदेसियं वासं वासेमाणं पेहाए, तिव्वदेसियं महियं संनिचयमाणं पेहाए, महावाएण वा रयं समुद्धयं
१ उच्चार-पासवणेणं उब्बाहिज्जा नो से कप्पति उगिण्हित्तए वा, कप्पति से पुव-पडिलेहिए थंडिले उच्चार पासवणं परिठवित्तए, तम्मेव उवस्सयं आगम्म अहाविहि ठाणं ठवित्तए।
- दशाश्रुतस्कंध, दशा ७। २ व्यवहार सूत्र, उदेशक ९। ३ ज्ञाता धर्मकथाङ्ग, अध्याय १। ४ उत्तराध्ययन सूत्र, अ० २६। ५ निशीथ सूत्र; उ०४।