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संपादकीय विश्ववन्ध आराध्य देव श्रमण भगवान महावीर की वाणी आगम साहित्य में सुरक्षित है, इसीलिए जैन परम्परा में आगम साहित्य का स्थान सर्वोपरि है। आगम साहित्य को हम आध्यात्मिक विज्ञान के ग्रन्थ भी कह सकते हैं। इनमें उन विधियों का संकलन है जिनके द्वारा आत्मा परमात्मा हो सकता है। अनन्त अतीत से अनन्त आत्माएं आगम साहित्य के स्वाध्याय, आराधन और आचरण से अपने परम लक्ष्य को साधती आ रही हैं। वर्तमान में भी अनेक साधक आगमों के स्वाध्याय, चिन्तन, मनन और आराधन द्वारा अपने साध्य-पथ पर अग्रसर हैं। भविष्य में भी आगम साधकों के लिए परमाधार होंगे।
आगम साहित्य में अध्यात्म-विज्ञान का सूक्ष्म और विशद विश्लेषण हुआ है। विश्लेषण विशद होने पर भी उसका विषय अति गूढ़ है। प्रत्येक साधक के लिए उसे समझ पाना सरल नहीं है। उसके लिए साधक में अपराभूत जिज्ञासिता, स्वाध्यायशीलता और अटूट धैर्य अपेक्षित है। साधक में उक्त गुण आने पर आगम सरल बन जाते हैं।
हमारे आराध्यदेव श्रमण संघ के प्रथम पट्टधर आचार्य सम्राट् श्री आत्माराम जी महाराज उपरोक्त गुणों और अन्यान्य गुणों के अक्षय सागर थे। यही कारण है कि बत्तीसों आगम उनकी प्रज्ञा में प्राणवन्त बने थे। बत्तीसों आगम उनके आचार, विचार और व्यवहार में साकार बने थे।
करुणा के अमर देवता आराध्य देव पूज्य श्री ने आगमों को सर्वगम्य बनाने के लिए संकल्प किया और वे आगम व्याख्या लेखन साधना में साधनाशील बन गए। जब तक उनकी देह रही वे लिखते रहे और अपने निर्देशन में लिखवाते रहे। अपने जीवन काल में उन्होंने अठारह आगमों पर विशाल व्याख्याएं लिखीं। आचार्य श्री के उस लेखन की मौलिकता और विशिष्टता यह रही कि उससे आगम सर्वसाधारण के लिए सरल और सुगम बन गए। आचार्य श्री का यह विश्व पर महान् उपकार है जो सदासदा स्मरणीय रहेगा।
आचार्य श्री ने अपने जीवन काल में आगमों की व्याख्या सहित लगभग साठ ग्रन्थ लिखे। ये सभी ग्रन्थ आगमों के आधार पर ही लिखे गए हैं। तथा जैन संस्कृति की अमूल्य,धरोहर स्वरूप हैं।
आचार्य श्री के जीवन काल में ही उन द्वारा व्याख्यायित और सृजित कुछ ग्रन्थ प्रकाशित हुए। उनके देवलोक के पश्चात् भी कुछ ग्रन्थ प्रकाश में आए। परन्तु खेद का विषय है कि पूज्य श्री का सम्पूर्ण साहित्य आज तक प्रकाश में नहीं आ पाया है। उत्तर और दक्षिण भारत के सुदूर अंचलों में विचरण करते हुए मैंने पाया कि सभी स्थानों पर आचार्य श्री के आगमों के असंख्य जिज्ञासु पाठक मौजूद हैं। परिणाम स्वरूप मैंने यह संकल्प अपने मन में संजोया कि आचार्य श्री के व्याख्यायित और सृजित साहित्य को जन-सुलभ बनाया जाए। जैन जगत के अग्रगण्य श्रावकों ने मेरे संकल्प को गद्गद् भाव से स्वीकार किया
और "आत्म-ज्ञान-श्रमण-शिव आगम प्रकाशन समिति" का गठन किया। इस समिति के तत्वावधान में आगम प्रकाशन का कार्य द्रुतगति से प्रारंभ हुआ। विगत एक वर्ष में श्री उपासकदशांग, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम्-भाग-१-२-३, श्री अनुत्तरौपपातिक सूत्रम्, श्री अन्तकृद्दशांग सूत्रम्, श्री दशवैकालिक सूत्रम्-और श्री आचाराङ्ग सूत्रम (प्रथम श्रुतस्कंध) आगम प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत श्री आचाराङ्ग सूत्रम् (द्वितीय