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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध ने नहीं की थी, बल्कि उनके दीक्षित होने के बाद भरत ने की थी। उनका वर्ण पीछे से आरम्भ हुआ इस कारण उसका उल्लेख नहीं किया हो। २-प्रस्तुत सूत्र में भोग कुल का उल्लेख किया गया है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ राजाओं का पूजनीयं कुल किया है। ब्राह्मण प्रायः पठन-पाठन के कार्य में ही संलग्न रहते थे एवं निस्पृह भी होते थे। इस कारण राजा लोग उनका सम्मान करते थे। अतः हो सकता है कि भोग कुल से ब्राह्मण कल का उल्लेख किया गया हो।
एष्य कुल से गौ रक्षा एवं पशु पालन करने वाले कुलों तथा वैश्य कुल से कृषि कर्म के द्वारा अल्पारम्भी जीवन बिताने वाले कुलों का निर्देश किया गया है। ३- गण्डाक-नाई आदि के कुल से केशालंकार एवं गांव में किसी तरह की उद्घोषणा आदि कराने की प्रवृत्ति का तथा कुट्टाक, वर्द्धकी आदि कुलों से भवन निर्माण एवं काष्ठ कला की और तन्तुवाय कुल से वस्त्र कला की परम्परा का संकेत मिलता है। इस तरह उक्त कुलों के निर्देश से उस युग की राष्ट्रीय एवं सामाजिक व्यवस्था का पूरा परिचय मिलता है। अन्य अनिन्दनीय कुलों से शिल्प एवं विज्ञान आदि के कुशल कलाकारों का निर्देश किया गया है। अतः प्रस्तुत सूत्र ऐतिहासिक विद्वानों एवं रिसर्च स्कालरों के लिए बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ समवाएसु वा पिंडनियरेसु वा इंदमहेसु वा खंदमहेसु वा एवं रुद्दमहेसु वा मुगुंदमहेसुवा भूयमहेसुवा जक्खमहेसुवा नागमहेसु वा थूभमहेसुवा चेइयमहेसु वा रुक्खमहेसु वा गिरिमहेसु वा दरिमहेसु वा अगडमहेसु वा तलागमहेसु वा दहमहेसु वा नइमहेसु वा सरमहेसु सागरमहेसु वा आगरमहेसु वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसुविरूवरूवेसुमहामहेसुवट्टमाणेसुबहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगे एगाओ उक्खाओ परिएसिजमाणे पेहाए दोहिं जाव संनिहिसंनिचयाओ वा परिएसिजमाणे पेहाए तहप्पगारं असणं वा ४ अपुरिसंतरकडं जाव नो पडिग्गाहिज्जा। अह पुण एवं जाणिज्जा-दिन्नं जं तेसिं दायव्वं, अह तत्थ भुंजमाणे पेहाए गाहावइभारियं वा गाहावइभगिणिं वा गाहावइपुत्तं वा धूयं वा सुण्डं वा धाई वा दासं वा दासिं वा कम्मकरं वा कम्मकरि वा से पुव्वामेव आलोइजा आउसि त्ति ! वा भगिणि त्ति ! वा दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं भोयणजायं, से सेवं वयंतस्स परो असणं वा ४ आहटु दलइज्जा तहप्पगारं असणं वा ४ सयं वा पुण जाइज्जा परो वा से दिज्जा फासुयं जाव पडिग्गाहिज्जा॥१२॥