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________________ ४९९ पञ्चदश अध्ययन को प्राप्त होता हुआ। संतिभेया-शांति का भेद। संतिविभंगा-शांति विभंग। संतिकेवलीपन्नत्ताओ-शान्ति रूप केवली भाषित। धम्माओ-धर्म से। भंसिजा-भ्रष्ट हो जाता है। फासविसयमागयं-स्पर्शेन्द्रिय के विषय को प्राप्त हुआ।फासं-स्पर्श। अवेएउं-बिना स्पर्शित हुए।न सक्का-नहीं रहता अर्थात् स्पर्शेन्द्रिय के सन्निधान में आए हुए स्पर्शनीय पुद्गलों का स्पर्श हुए बिना नहीं रहता, परन्तु। तत्थ-वहां पर। जे-जो। रागदोसा-राग-द्वेष उत्पन्न होता है। ते-उनको। भिक्खू-भिक्षु-साधु। परिवजए-सर्व प्रकार से त्याग दे, छोड़ दे। जीवो-जीव। मणुन्नामणुन्नाई-प्रिय तथा अप्रिय। फासाई-स्पर्शों को। फासाओ-स्पर्शेन्द्रिय के द्वारा। पडिसंवेएइ-अनुभव करता है, परन्तु उन के विषय में राग-द्वेष नहीं करना यह। पंचमा-पांचवीं। भावणा-भावना कही गई है। - एतावता-इस प्रकार। पंचमे महव्वए-पंचम महाव्रत में। सम्म-सम्यक् प्रकार से। अवट्ठिएअवस्थित।आणाए-आज्ञा का।आराहिए-आराधक।यावि भवइ-होता है। पंचमं भंते महव्वयं-हे भगवन् ! ये पांचवां महाव्रत है। इच्चेएहिं पंचमहव्वएहि-इन पांच महाव्रतों से, तथा। पणवीसाहि य भावणाहिंपच्चीस भावनाओं से। संपन्ने-युक्त।अणगारे-साधु।अहासुर्य-श्रुत के अनुसार। अहाकप्पं-कल्प के अनुसार। अहामग्गं-मार्ग के अनुसार। सम्म-अच्छी तरह से। काए-काया द्वारा। फासित्ता-स्पर्शित कर। पालित्तापालन कर। तीरित्ता-तीरित कर।किट्टित्ता-कीर्तित कर के।आणाए-आज्ञा का।आराहित्ता-आराधन करने वाला। यावि भवइ-होता है। मूलार्थ-इस पंचम महाव्रत की ये पांच भावनाएं हैं- श्रोत्र से यह जीव प्रिय तथा अप्रिय शब्दों को सुनता है, परन्तु वह प्रिय तथा अप्रिय शब्दों में आसक्त न हो, राग भाव न करे, गृद्ध न हो, मूर्च्छित न हो, तथा अत्यन्त आसक्ति एवं राग-द्वेष न करे, केवली भगवान कहते हैं कि साधु मनोज्ञामनोज्ञ शब्दों में आसक्त होता हुआ, राग करता हुआ यावत् विद्वेष करता हुआ शान्ति भेद एवं शान्ति विभंग करता है और केवली भाषित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है तथा श्रोत्र विषय में आए हुए शब्द ऐसे नहीं जो सुने न जाएं किन्तु उनके सुनने पर जो राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है, भिक्षु उसका परित्याग कर दे। अतः जीव के श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में आए हुए प्रिय और अप्रिय शब्दों में राग-द्वेष न करे। यह प्रथम भावना कही गई है। चक्षु के द्वारा यह जीव प्रिय तथा अप्रिय रूपों को देखता है, प्रिय सुन्दर रूपों में आसक्त होता हुआ यावत् द्वेष करता हुआ शान्ति भेद यावत् धर्म से पतित हो जाता है। तथा चक्षु के विषय में आया हुआ रूप अदृष्ट नहीं रह सकता अर्थात् वह अवश्य दिखाई देगा, परन्तु उसको देखने से उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष का भिक्षु परित्याग कर दे। इस तरह चक्षु के द्वारा देखे जाने वाले प्रिय और अप्रिय रूपों पर राग-द्वेष नहीं करना चाहिए, यह द्वितीय भावना है। तीसरी भावना यह है- नासिका के द्वारा जीव प्रिय तथा अप्रिय गंधों को सूंघता है, परन्तु प्रिय तथा अप्रिय गंधों को सूंघता हुआ उनमें राग-द्वेष न करे, क्योंकि केवली भगवान कहते हैं कि प्रिय तथा अप्रिय गंधों में राग-द्वेष करता हुआ साधु शांति का भेदन करता हुआ धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। तथा ऐसे भी नहीं कि नासिका के सन्निधान में आए हुए गंध के परमाणु पुद्गल सूंघे
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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