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________________ ४८० श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध अहावरा चउत्था भावणा-अब चतुर्थ भावना को कहते हैं। भयं परिजाणइ-भय को जानकर उसका परित्याग करता है। से निग्गंथे-वह निर्ग्रन्थ है। नो भवभीरुए सिया-साधु भय से भीरु न बने। केवली बूया-केवली भगवान कहते हैं। भयपत्ते-भय को प्राप्त हुआ। भीरू-डरने वाला साधु। मोसं वयणाए-मृषा वचन। समावइज्जा-बोल देता है अतः। भयं परियाणइ-जो भय का परित्याग करता है। से निग्गंथे-वह निर्ग्रन्थ है इसलिए। नो भयभीरुए सिया-भय से भीरु न हो।त्ति-इस प्रकार। चउत्था भावणा-यह चतुर्थ भावना है। अहावरा पंचमा भावणा-अब पांचवीं भावना को कहते हैं।हासं परियाणइ-हस्य को जान कर जो हास्य का परित्याग करता है। से निग्गंथे-वह निर्ग्रन्थ है। नो य हासणए सिया-और फिर वह निर्ग्रन्थ हसन शील न हो क्योंकि। केवली-केवली भगवान कहते हैं, यह कर्म बन्धन का हेतु है। हासपत्ते-हास्य को प्राप्त होकर। हासी-हास्य करने वाला। मोसं-मृषा। वयणाए-वचन। समावइजा-बोलने वाला होता है अर्थात् वह झूठ भी बोल देता है अतः जो। हासं परियाणइ-हास्य का परित्याग करता है। से निग्गंथे-वह निर्ग्रन्थ है। नो. हासणए सियत्ति-न कि हास्य शील होने वाला। पंचमा भावणा-यह पांचवीं भावना कही है। मूलार्थ-इस द्वितीय महाव्रत की ये पांच भावनाएं हैं उन पांच भावनाओं में से प्रथम भावना यह है जो विचार पूर्वक भाषण करता है वह निर्ग्रन्थ है, बिना विचारे भाषण करने वाला निर्ग्रन्थ नहीं है। केवली भगवान कहते हैं कि बिना विचारे बोलने वाले निर्ग्रन्थ को मृषा भाषण की संप्राप्ति होती है अर्थात् मिथ्या भाषण का दोष लगता है अतः विचार पूर्वक बोलने वाला साधक ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है। द्वितीय महाव्रत की दूसरी भावना यह है कि जो साधक क्रोध के कटु फल को जानकर उसका परित्याग करता है, वह निर्ग्रन्थ है। केवली भगवान का कहना है कि क्रोध एवं आवेश के वश व्यक्ति असत्य वचन का प्रयोग कर देता है। अतः क्रोध से निवृत साधक ही निर्ग्रन्थ होता है। तीसरी भावना यह है कि लोभ का परित्याग करने वाला साधक निर्ग्रन्थ होता है। लोभ के वश होकर भी व्यक्ति झूठ बोल देता है, अतः साधक को लोभ नहीं करना चाहिए। चौथी भावना यह है कि भय का सर्वथा परित्याग करने वाला व्यक्ति निर्ग्रन्थ कहलाता है। भय से युक्त व्यक्ति अपने बचाव के लिए झूठ बोल देता है। अतः मुनि को सदा पूर्णतः भय से रहति रहना चाहिए। पांचवीं भावना यह है कि हास्य का त्याग करने वाला साधक निर्ग्रन्थ कहलाता है। हास्यवश भी व्यक्ति असत्य भाषण कर सकता है। इस लिए मुनि को हास्य-हंसी मजाक का सर्वथा परित्याग करना चाहिए। हिन्दी विवेचन- प्रथम महाव्रत की तरह द्वितीय महाव्रत की भी ५ भावनाएं हैं- १ विवेकविचार से बोलना, २ क्रोध के वश, ३ लोभ के वश, ४ भय के वश, ५ हास्य के वश असत्य नहीं बोलना चाहिए। भाषा बोलने के पूर्व विवेक रखना प्रत्येक व्यक्ति के लिए हितकर है। परन्तु असत्य का सर्वथा त्याग करने वाले साधक के लिए यह अनिवार्य है कि वह विवेक पूर्वक एवं भाषा की सदोषता तथा निर्दोषता का विचार करके बोले। वह सदा इस बात का ख्याल रखे कि किसी भी तरह असत्य एवं सदोष
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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