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________________ पञ्चदश अध्ययन ४७५ आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए-जो आदान भाण्डमात्र निक्षेपणा समिति से युक्त है। से निग्गंथे-वह निर्ग्रन्थ साधु है। नो आयाणभंडमत्तनिक्खेवणाअसमिएत्ति-अतः साधु आदान भाण्ड मात्र निक्षेपणा असमिति से युक्त न हो अर्थात् समिति से युक्त हो यह। चउत्थी भावणा-चौथी भावना कही गई है। मूलार्थ-अब चतुर्थ भावना को कहते हैं-जो आदान भाण्डमात्र निक्षेपणा समिति से युक्त होता है वह निर्ग्रन्थ है।अतः साधु आदान भाण्डमात्र निक्षेपणा समिति से रहित न हो, क्योंकि केवली भगवान कहते हैं कि जो इससे रहित होता है, वह निर्ग्रन्थ प्राणी, भूत, जीव, और सत्वों का हिंसक होता है यावत् उनको प्राणों से रहित करने वाला होता है। अतः जो साधु इस समिति से युक्त है वह निर्ग्रन्थ है। यह चौथी भावना है। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में शारीरिक क्रिया की शुद्धि का उल्लेख किया गया है। साधु को मन, वचन की शुद्धि के साथ शारीरिक प्रवृत्ति को भी सदा शुद्ध रखना चाहिए। उसे अपनी साधना में आवश्यक भंडोपकरण आदि ग्रहण करना पड़े या कहीं रखने एवं उठाने की आवश्यकता पड़े तो उसे यह कार्य विवेक एवं यतना पूर्वक करना चाहिए। अयतना से कार्य करने वाला साधु प्रथम महाव्रत को शुद्ध नहीं रख सकता और वह पाप कर्म का बन्ध करता है। क्योंकि अविवेक से जीवों की हिंसा का होना संभव है और जीव हिंसा पाप बन्धन का कारण है तथा इससे प्रथम महाव्रत का भी खंडन होता है। अतः साधु को प्रत्येक उपकरण विवेक से उठाना एवं रखना चाहिए। अब पांचवी भावना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं. मूलम्- अहावरा पंचमा भावणा- आलोइयपाणभोयणभोई से निग्गंथे नो अणालोइयपाणभोयणभोई, केवली बूया-अणालोइयपाणभोयणभोई से निग्गंथे पाणाणि वा ४ अभिहणिज्ज वा जाव उद्दविज्ज वा, तम्हा आलोइयपाणभोयणभोई से निग्गंथे, नो अणालोइयपाणभोयणभोईति पंचमा भावणा॥५॥ छाया- अथापरा पंचमी भावना आलोकितपानभोजनभोजी सः निर्ग्रन्थः नो अनालोकितपानभोजनभोजी, केवली ब्रूयात् आदानमेतत् अनालोकितपानभोजनभोजी स निर्ग्रन्थः प्राणिनः वा ४ अभिहन्याद्वा यावत् अपद्रापयेद्वा तस्मात् आलोकितपानभोजनभोजी सः निर्ग्रन्थः नो अनालोकितपानभोजनभोजी इति पंचमी भावना। पदार्थ-अहावरा पंचमा भावणा-अब पांचवीं भावना को कहते हैं।आलोइयपाणभोयणभोईजो विवेक पूर्वक देखकर आहार-पानी करता है। से निग्गंथे-वह निर्ग्रन्थ है। नो अणालोइयपाणभोयणभोईऔर बिना देखे आहार-पानी करने वाला निर्ग्रन्थ नहीं है क्योंकि । केवली बूया-केवली भगवान कहते हैं कि यह कर्म बन्ध का हेतु है। अणालोइयपाणभोयणभोई-जो बिना देखे आहार-पानी करता है। से-वह। निग्गंथेनिर्ग्रन्थ। पाणाणि वा ४-प्राणि, भूत, जीव और सत्वों का। अभिहणिज वा-अभिहनन करने। जाव-यावत्।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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