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________________ ४७४ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध मूलार्थ-अब तीसरी भावना का स्वरूप कहते हैं जो साधक सदोष वाणी-वचन को छोड़ता है, वह निर्ग्रन्थ है। जो वचन पापमय, सावद्य और सक्रिय यावत् भूतों-जीवों का उपघातक, विनाशक हो, साधु उस वचन का उच्चारण न करे। जो वाणी के दोषों को जानकर उन्हें छोड़ता है और पाप रहित निर्दोष वचन का उच्चारण करता है उसे निर्ग्रन्थ कहते हैं। यह तीसरी भावना है। हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में वाणी की निर्दोषता का वर्णन किया गया है। इसमें स्पष्ट कर दिया गया है कि सावध, सदोष एवं पापकारी भाषा का प्रयोग करने वाला व्यक्ति निर्ग्रन्थ नहीं हो सकता। क्योंकि सदोष एवं पापयुक्त भाषा से जीव हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है। अतः साधु को अपने वचन का प्रयोग करते समय भाषा की निर्दोषता पर पूरा ध्यान रखना चाहिए। उसे कर्कश, कठोर, व्यक्ति-व्यक्ति में छेद-भेद एवं फूट डालने वाले, हास्यकारी, निश्चयकारी, अन्य प्राणियों के मन में कष्ट, वेदना एवं पीड़ा देने वाली, सावद्य एवं पापमय भाषा का कभी प्रयोग नहीं करना चाहिए। प्रथम महाव्रत की शुद्धि के लिए . भाषा की शुद्धता एवं निर्दोषता का परिपालन करना आवश्यक है। अब चौथी भावना का विश्लेषण करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- अहावरा चउत्था भावणा-आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए से निग्गंथे, नो आणायाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए, के वली बूया. आयाणभंडमत्तनिक्खेवणाअसमिए से निग्गंथे, पाणाइं भूयाई जीवाइं सत्ताई अभिहणिज्ज वा जाव उद्दविज वा, तम्हा आयाणभंडमंत्तनिक्खेवणासमिए से निग्गंथे नो आयाणभंडमत्तनिक्खेवणाअसमिएत्ति चउत्था भावणा।४। ___ छाया- अथापरा चतुर्थी भावना-आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमितः स निर्ग्रन्थः नो अनादानभांडमात्रनिक्षेपणाऽसमितः के वली ब्रूयात् आदानमेतत् आदानभांडमात्रनिक्षेपणाअसमितः स निर्ग्रन्थः प्राणिनः भूतानि, जीवान् सत्त्वानि अभिहन्याद् वा यावत् अपद्रापयेद् वा तस्मात् आदानभांडमात्रनिक्षेपणासमितः स निर्ग्रन्थः नो आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणाअसमितः इति चतुर्थी भावना। पदार्थ-अहावरा-तीसरी भवना से आगे अब। चउत्था भावणा-चौथी भावना को कहते हैं यथा। आयाणभंडमत्तनिक्खेवणा समिए-भण्डोपकरण समिति से युक्त है अर्थात् यतना पूर्वक वस्त्र-पात्रादि उपकरणों को ग्रहण करता है तथा यतना पूर्वक उन्हें उठाता एवं रखता है। से निग्गंथे-वह निर्ग्रन्थ है। नो आणायाणभंडमत्तनिक्खेवणाअसमिए-साधु आदान भाण्डमात्र निक्षेपण असमिति वाला न हो क्योंकि। के वली-के वली भगवान। बूया-कहते हैं कि यह कर्म बन्धन का कारण है अतः जो साधु । आयाणभंडमत्तनिक्खेवणाअसमिए-भाण्डोपकरण लेता हुआ और रखता हुआ समिति से रहित होता है। से निग्गंथे-वह साधु। पाणाइं-प्राणी। भूयाइं-भूत। जीवाइं-जीव और। सत्ताइं-सत्वों को। अभिहणिज्न वाअभिहनन करता है। जाव-यावत्। उद्दविज वा-प्राणों से पृथक करता है। तम्हा-इस लिए।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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