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________________ ४७२ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध संबद्ध है। इस में बताया गया है कि साधु को विवेक एवं यतना पूर्वक चलना चाहिए। यदि वह विवेक पूर्वकर्या समिति का पालन करते हुए चलता है, तो पाप कर्म का बन्ध नहीं करता है । और इसके अभाव में यदि अविवेक से गति करता है तो पाप कर्म का बन्ध करता है । अतः साधक को ईर्यासमिति के परिपालन में सदा सावधान रहना चाहिए। इससे वह प्रथम महाव्रत का सम्यक्तया परिपालन कर सकता है। ईर्या समिति गति से संबद्ध है । अतः चलने-फिरने में विवेक एवं यत्ना रखना साधु के लिए आवश्यक है। अब सूत्रकार द्वितीय भावना के सम्बन्ध में कहते हैं मूलम् - अहावरा दुच्चा भावणा-मणं परियाणइ से निग्गंथे, जे य मणे पावए सावज्जे सकिरिए अण्हयकरे छेयकरे भेयकरे अहिगरणिए पाउसिए पारियाविए पाणाइवाइए भूओवघाइए, तहप्पगारं मणं नो पधारिज्जा गमणाए, मणं परियाणइ से निग्गन्थे, जे य मणे अपावएत्ति दुच्चा भावणा ॥ २ ॥ छाया - अथापरा द्वितीया भावना मनः परिजानाति सः निर्ग्रन्थः यच्च मनः पापकं सावद्यं सक्रियं आश्रवकरं छेदकरं भेदकरं आधिकरणिकं प्राद्वेषिकं पारितापिकं प्राणातिपातकं भूतोपघातिकं तथाप्रकारं मनः नो प्रधारयेत् गमनाय मनः परिजानाति स निर्ग्रन्थः यच्च मनः अपापकम् इति द्वितीया भावना । पदार्थ - अहावरा - अब इससे भिन्न । दुच्चा भावणा - दूसरी भावना को कहते हैं। मणं परियाणइजो पाप मयी विचारणा से मन को हटाए । से निग्गंथे वह निर्ग्रन्थ है । य-पुनः । जे- जो । मणे-मन । पावएपापयुक्त। सावज्जे-: - सावद्य-पापरूप । सकिरिए-क्रियायुक्त। अण्हयकरे-अ - आश्रव के करने वाला। छेयकरेप्राणियों के छेदन करने वाला। भेयकरे-भेदन करने वाला । अहिगरणिए-कलह करने वाला । पाउसिए - द्वेष करने वाला। परियाविए-परिताप का देने वाला । पाणाइवाइए - प्राणातिपात के करने वाला । भूओवघाइएभूतों का उपघात करने वाला है तो साधु । तहप्पगारं तथाप्रकार के । मणं मन को । नो पधारिज्जा-धारण न करे। मणं परिजाणइ - जो मन को हिंसा से हटाता है। य-पुनः। जे- जिसका । मणे मन । अपावएत्ति - पाप से रहित है । से निग्गंथे वह निर्ग्रन्थ है। दुच्चा भावणा- यह दूसरी भावना है। मूलार्थ - अब दूसरी भावना को कहते हैं- जो मन को पापों से हटाता है वह निर्ग्रन्थ है । साधु ऐसे मन (विचारों) को धारण न करे, पापकारी, सावद्यकारी, क्रिया युक्त, आश्रव करने वाला, छेदन तथा भेदन करने वाला, कलहकारी, द्वेषकारी, परितापकारी, प्राणों का अतिपात १ जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सए । जयं भुञ्जन्तो भासन्तो पावकम्मं न बंधइ ॥ २ - ईरणं-गमनं ईर्या तस्यां समितो- दत्तावधानः पुरतोयुगमात्रभूभागन्यस्तदृष्टिगामीत्यर्थः ॥ दशवैकालिक सूत्र, ४, ८ । आचारांग वृत्ति ।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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