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________________ पञ्चदश अध्ययन ४७१ धारण किए हुए है। महाव्रतों का निर्दोष परिपालन करने के लिए उनकी भावनाओं का आचरण करना आवश्यक है। इसलिए प्रथम महाव्रत की भावनाओं का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति, तत्थिमा पढमा भावणा इरियासमिए से निग्गंथे नो अणइरियासमिएत्ति, केवली बूया अणइरियासमिए से निग्गंथे पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं अभिहणिज वा वत्तिज वा परियाविज वा लेसिज्ज वा उद्दविज्ज वा, इरियासमिए से निग्गंथे नो अणडरियासमिइत्ति पढमा भावणा॥१॥ छाया- तस्य इमाः पञ्च भावना भवन्ति, तत्र इयं प्रथमा भावना-ईर्यासमितः स निर्ग्रन्थः नो अनीर्यासमितः इति केवली ब्रूयात् आदानमेतत् अनीर्यासमितः सः निर्ग्रन्थः प्राणिनः भूतानि, जीवान् सत्त्वानि अभिहन्याद् वा वर्तयेद् वा परितापयेत् वा श्लेषयेत् वा अपद्रापयेद् वा, ईर्यासमितः सः निर्ग्रन्थः नो अनीर्यासमितः इति प्रथमा भावना। पदार्थ- तस्स-उस प्रथम महाव्रत की।इमा-ये-आगे कही जाने वाली।पंच-पांच। भावणाओभावानाएं। भवंति होती हैं। तत्थिमा-उन पांचों में से यह-जो कि आगे।कही जाती हैं। पढमा-प्रथम। भावणाभावना है। इरियासमिए-ईर्यासमिति से युक्त।से-वह। निग्गंथे-निर्ग्रन्थ। नो अणइरियासमिएत्ति-ईर्यासमिति से रहित साधु नहीं कहा जाता, इस प्रकार से। केवली बूया-केवली भगवान कहते हैं और यह कर्म आने का कारण है क्योंकि । अणइरियासमिए-ईर्या समिति से रहित। से निग्गंथे-वह निर्ग्रन्थ-साधु। पाणाइं-प्राणियों को। भूयाई-भूतों को । जीवाइं-जीवों को।सत्ताई-सत्त्वों को।अभिहणिज वा-अभिहनन करता है। वत्तिज्ज वा-एकत्रित करता है तथा। परियाविज वा-परितापना देता है। लेसिज्ज वा-भूमि से संश्लिष्ट करता है। उद्दविज वा-जीवन से रहित करता है, अतः वह निर्ग्रन्थ नहीं, परन्तु।इरियासमिए-ईर्या समिति से युक्त साधु।से निग्गंथे-वह निर्ग्रन्थ होता है अर्थात् वह किसी जीव की हिंसा नहीं करता है। नो अणइरियासमिइत्ति-वह ईर्या समिति से रहित नहीं होता है इस प्रकार। पढमा भावणा-यह प्रथम भावना है। मूलार्थ-प्रथम महाव्रत की ५ भावनाएं होती हैं। उनमें से पहली भावना यह हैनिर्ग्रन्थ ईर्या समिति से युक्त होता है, न कि उससे रहित। भगवान कहते हैं कि ईर्या समिति का अभाव कर्म आने का द्वार है। क्योंकि इससे रहित निर्ग्रन्थ प्राणी, भूत, जीव और सत्व की हिंसा करता है उन्हें एक स्थान से स्थानान्तर में रखता है, परिताप देता है, भूमि से संश्लिष्ट करता है और जीवन से रहित करता है । इसलिए निर्ग्रन्थ को ईर्या समिति युक्त होकर संयम का आराधन करना चाहिए, यह प्रथम भावना है। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में पहले महाव्रत की प्रथम भावना का उल्लेख किया गया है। भावना साधु की साधना को शुद्ध रखने के लिए होती है। प्रथम महाव्रत की प्रथम भावना ईर्यासमिति से
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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