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________________ पञ्चदश अध्ययन ४६९ मूलार्थ - तत् पश्चात् केवल ज्ञान और दर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर ने गौतमादि श्रमणों को भावना सहित पांच महाव्रतों और पृथ्वी आदि षट् जीव निकाय स्वरूप का सामान्य प्रकार से तथा विशेष प्रकार से अर्द्धमागधी भाषा में प्रतिपादन किया। हिन्दी विवेचन प्रस्तुत सूत्र में भगवान द्वारा दिए गए उपदेश का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि देवों को उपदेश देने के बाद भगवान ने गौतम आदि गणधरों, साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाओं के सामने ५ महाव्रत एवं उसकी २५ भावनाओं तथा षट्जीवनिकाय आदि का उपदेश दिया। इससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान को सर्वज्ञता प्राप्त होने के बाद इन्द्रभूति गौतम आदि विद्वान उनके पास आए और विचार चर्चा करने के बाद भगवान के शिष्य बन गए। अत: उन्हें एवं अन्य जिज्ञासु मनुष्यों को मोक्ष का यथार्थ मार्ग बताने के लिए संयम साधना के स्वरूप को बताना आवश्यक था । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में भगवान ऋषभदेव के सम्बन्ध में कहा गया है कि भगवान ऋषभदेव कहते हैं कि जैसे यह संयम साधना या मोक्ष मार्ग मेरे लिए हितप्रद, सुखप्रद, एवं सर्व दुखों का नाशक है, उसी तरह जगत समस्त प्राणियों के लिए भी अनन्त सुख-शान्ति का द्वार खोलने वाला है'। अतः सभी तीर्थंकर जगत के सभी प्राणियों की रक्षा रूप दया के लिए उपदेश देते हैं। उनका यही उद्देश्य रहता है सभी प्राणी साधना के यथार्थ स्वरूप को समझकर उस पर चलने का प्रयत्न करें। इसी दृष्टि से भगवान महावीर गौतम आदि सभी साधु-साध्वियों एवं अन्य मनुष्यों के सामने उपदेश देते हैं और साधना के प्रशस्त पथ का जिस पर चलकर आत्मा अनन्त शान्ति को पा सके, प्रसार एवं प्रचार करने के लिए चार तीर्थ साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका की स्थापना करते हैं । प्रत्येक तीर्थंकर सर्वज्ञ बनने के बाद तीर्थ की स्थापना करते हैं, इसे संघ भी कहते हैं। जिसके द्वारा विश्व में धर्म का, अहिंसा का और शान्ति का प्रचार किया जा सके। इस तरह साधना के मार्ग का यथार्थ रूप बताते हुए भगवान महावीर प्रथम महाव्रत के सम्बन्ध में कहते हैं १ तस्स णं भगवंतस्स एतेणं विहारेणं विहारमाणस्स एगे वाससहस्से वीइक्कंते समाणे पुरिमतालस्स नगरस्स बहिया संगडमुहंसि उज्जाणंसि णिग्गोहवरपायवस्स अहे ज्झाणंतरियाए वट्टमाणस्स फग्गुणबहुलस्स इक्कारसीए पुव्वण्हकालसमयंसि अट्ठमेणं भत्तेणं अपाणएणं उत्तरासाढानक्खत्तेणं जोगमुवागएणं अणुत्तरेणं नाणेणं जाव चरित्तेणं अणुत्तरेणं तवेणं बलेणं वीरिएणं आलएणं विहारेणं भावणाए खंतीए मुत्तीए गुत्तीए तुट्ठीए अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवेणं सुचरिअसोवचिअफलनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स अणंते अणुत्तरे णिव्वाघाए णिरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने, जिणे जाए केवली सव्वन्नू सव्वदरिसी सणेरइ अतिरिअनरामरस्स लोगस्स पज्जवे जाणइ पासइ तंज़हा- आगई गई ठिई उववायं भूतं कडं पडिसेवियं आवीकम्मं रहोकम्मं तं तं कालं मणवयकाये जोगे एवमादी जीवाणवि सव्वभावे अजीवाणवि सव्वभावे मोक्खमग्गस्स विसुद्धतराए भावे जाणमाणे पासमाणे एस खलु मोक्खमग्गे मम अण्णेसिं च जीवाणं हियसुहणिस्सेसकरे सव्वदुक्खविमोक्खणे परमसुहसमाणए भविस्सइ । तते णं से भगवं समणाण निग्गंथाण य णिग्गंथीण य पंच महव्वयाई सभाबणाई छज्जीवनिकाए धम्मं देसमाणो विहरति, तंजहा पुढविकाइए भावणागमेणं पंच महव्वयाई सभावणगाई भाणिअव्वाइंति । • जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र २ सव्वजगजीवरक्खणदयट्टयाए भगवया पावयणं सुकहियं । प्रश्नव्याकरण सूत्र, संवरद्वार।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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