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________________ ४६८ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध मूलार्थ तदनन्तर उत्पन्न प्रधान ज्ञान और दर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने केवल ज्ञान द्वारा अपनी आत्मा तथा लोक को भली-भांति देखकर पहले देवों को और पश्चात् मनुष्यों को धर्म का उपदेश दिया। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि भगवान ने अपनी सेवा में उपस्थित चारों जाति के देवों को धर्मोपदेश दिया। उसके बाद उन्होंने जनता (मनुष्यों) को धर्मोपदेश दिया। इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं, एक तो यह कि महापुरुष अपने पास आने वाले देव, मानव आदि प्रत्येक व्यक्ति को धर्मोपदेश देकर सन्मार्ग बताते हैं, उन्हें समस्त बन्धनों से मुक्त होने की राह बताते हैं। दूसरी बात यह है कि तीर्थंकर पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही उपदेश देते हैं। वे जब संपूर्ण पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानने-देखने लगते हैं, तभी वे प्रवचन करते हैं। जिससे उनके प्रवचन में विरोध एवं विपरीतता को अवकाश नहीं रहता और उसमें यथार्थता होने के कारण जनता के हृदय पर भी उसका असर होता है। ' स्थानांग सूत्र में बताया गया है कि भगवान के प्रथम प्रवचन में केवल देव ही उपस्थित थे, उस समय कोई मानव वहां उपस्थित नहीं था। और देव त्याग, व्रत, नियम आदि को स्वीकार नहीं कर सकते। इस कारण भगवान का प्रथम प्रवचन व्रत स्वीकार करने की (आचार की) अपेक्षा से असफल रहा था। इसलिए इस घटना को आगम में अन्य आश्चर्यकारी घटनाओं के साथ आश्चर्य जनक माना गया है। अब मानव को दिए गए धर्मोपदेश के सम्बन्ध में सूत्रकार कहते हैं मूलम्- तओणं समणे भगवं महावीरे उप्पन्ननाणदंसणधरे गोयमाईणं समणाणं पंच महव्वयाइं सभावणाई छज्जीवनिकाया आतिक्खति भासइ परूवेइ, तं-पुढविकाए जाव तसकाए। छाया- ततः श्रमणो भगवान् महावीरः उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः गौतमादीनां श्रमणानां पंचमहाव्रतानि सभावनानि षड्जीवनिकायान् आख्याति भाषते प्ररूपयति तद्यथा पृथिवीकायः यावत् त्रसकायः। पदार्थ-णं-वाक्यालंकारार्थक है। तओ-तदनन्तर। उप्पन्ननाणदंसणधरे-उत्पन्न हुए प्रधान ज्ञान और दर्शन को धरने वाले। समणे-श्रमण। भगवं-भगवान। महावीरे-महावीर ने। गोयमाईणं-गौतमादि। समणाणं-श्रमणों को।सभावणाई-भावनाओं से युक्त।पंचमहव्वयाई-पांच महाव्रत और।छज्जीवनिकायाषट् जीव निकाय का। आतिक्खति-सामान्य रूप से उपदेश दिया। भासइ-भगवान ने अर्द्धमागधी भाषा में भाषण किया। परूवेइ-विस्तार से तत्वों का प्रतिपादन किया। तंजहा-जैसे कि। पुढवीकाए-पृथिवीकाय। ' जाव-यावत्। तसकाए-त्रसकाय। १ स्थानांग सूत्र, स्थान १०।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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