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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध छाया- शिविका उपनीता, जिनवरस्य जरामरणविप्रमुक्तस्य।
अवसक्तमाल्यदामा, जलस्थलजदिव्यकुसुमैः ॥१॥ शिविकायां मध्यभागे, दिव्यं वररत्नरूपप्रतिबिम्बित।. सिंहासनं महार्ह, सपादपीठं जिनवरस्य॥२॥ अलंकृतमालामुकुटः, भासुरशरीरो वराभरणधारी। परिहितक्षौमिकवस्त्रः, यस्य च मूल्यं शतसहस्रम्॥३॥ षष्ठेन तु भक्तेन, अध्यवसानेन सुन्दरेण जिनः। लेश्याभिः विशुद्धान्तः, आरोहति उत्तमां शिविकां॥४॥ सिंहासने निविष्टः शक्रेशानौ च द्वाभ्यां पाश्र्वाम्याम्। वीजयतः चामरैः मणिरत्नविचित्रदण्डैः॥५॥ पूर्वम् उत्क्षिप्ता मानुषैः संहृष्टरोमकूपैः। . पश्चाद् वहन्ति देवाः, सुरासुरगरुडनागेन्द्राः॥६॥ पुरतः सुरा वहन्ति असुराः पुनः दक्षिणे पावें। अपरे वहन्ति गरुड़ाः नागाः पुनरुत्तरे पार्वे ॥७॥ वनषंड मिव कुसुमितं, पद्मसर इव यथा शरत्काले। शोभते कुसुमभरेण, इति गगनतलं सुरगणैः॥८॥ सिद्धार्थवनमिव यथा, कर्णिकारवनमिव चम्पकवनमिव। शोभते कुसुमभरेण, इति गगनतलं सुरगणैः॥९॥ वरपटहभेरिझल्लरीशंखशतसहस्त्रैः तूर्यः। . गगनतले धरणीतले, तूर्य निनादः परमरम्यः॥१०॥ ," ततविततं घनझुषिरम्, आतोद्यं चतुर्विधं बहुविधं वा।
वादयन्ते तत्र देवाः, बहुभिः आनर्तक. शतैः॥११॥
पदार्थ-जिणवरस्स-जिनेश्वर की। जरमरणविष्यमुक्कस्स-जरा और मृत्यु से विमुक्ति के लिए। सीया-शिविका। उवणीया-लाई गई। जलथलयदिव्वकुसुमेहि-उसमें जल और स्थल में उत्पन्न होने वाले दिव्य पुष्पों के समान वैक्रियलब्धि से उत्पन्न किए गए पुष्पों से। ओसत्तमल्लदामा-गूंथी हुई मालायें बान्धी गई। कहने का तात्पर्य यह है कि वैक्रियलब्धि जन्य पुष्पों की मालाओं से वह शिविका अलंकृत हो रही है।
सिवियाइ-शिविका के। मझयारे-मध्य भाग में। जिणवरस्स-जिनेश्वर का। दिव्वं-दिव्य तथा। वररयणरूवचिंचइयं-श्रेष्ठ रत्नों से प्रतिबिम्बित तथा। महरिहं-बहुमूल्यवान।सपायपीढं-पाद पीठिका सहित। सीहासणं-सिंहासन है। अर्थात् शिविका के मध्य भाग में भगवान के लिए एक दिव्य सिंहासन का निर्माण किया
गया।
आलइयमालमउडो-मालाओं तथा मुकुट से अलंकृत होने से।भासुरबंदी-जिनका शरीर देदीप्यमान