________________
४३८
श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध चइत्ता-च्यव कर-च्युत होकर।महविदेहे वासे-महाविदेह क्षेत्र में। चरमेणं-अन्तिम।उस्सासेणं-श्वासोच्छ्वास से। सिज्झिस्संति-सिद्ध होंगे। बुझिस्संति-बुद्ध होंगे। मुच्चिस्संति-कर्मों से मुक्त होंगे। परिनिव्वाइस्संतिनिर्वाण को प्राप्त होंगे। सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति-सर्व प्रकार के दुखों का अन्त करेंगे।
मूलार्थ-श्रमण भगवान महावीर स्वामी के माता-पिता भगवान पार्श्वनाथ के साधुओं के श्रमणोपासक-श्रावक थे। उन्होंने बहुत वर्षों तक श्रावक धर्म का पालन करके छः जीवनिकाय की रक्षा के निमित्त आलोचना करके,आत्म-निन्दा और आत्मगर्दा करके पापों से प्रतिक्रमण कर के पीछे हटकर के, मूल और उत्तर गुणों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित ग्रहण करके, कुशा के आसन पर बैठकर, भक्त प्रत्याख्यान नामक अनशन को स्वीकार किया। और अन्तिम मारणान्तिक शारीरिक संलेखना द्वारा शरीर को सुखाकर अपनी आयु पूरी करके उस औदारिक शरीर को छोड़ कर अच्युत नामक १२ वें देवलोक में देवपने उत्पन्न हुए। तदनन्तर वहां से देव सम्बन्धि आयु, भव और स्थिति का क्षय करके वहां से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में चरम श्वासोच्छ्वास द्वारा सिद्ध-बुद्ध मुक्त एवं परिनिवृत होंगे और सर्वप्रकार के दुःखों का अन्त करेंगे। .
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि भगवान महावीर के माता-पिता जैन श्रावक थे, वे भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के उपासक थे। इससे स्पष्ट होता है कि भगवान महावीर के पूर्व भी जैन धर्म का अस्तित्व था। अतः भगवान महावीर उसके संस्थापक नहीं, प्रत्युत जैन धर्म के प्रचारक थे, अनादि काल से प्रवहमान धार्मिक प्रवाह को प्रगति देने वाले थे। उनका कुल जैनधर्म से संस्कारित था। अतः भगवान के माता-पिता के लिए 'पापित्य' शब्द का प्रयोग किया गया है। 'अपत्य' शब्द शिष्य एवं सन्तान दोनों के लिए प्रयुक्त होता रहा है।
महाराज सिद्धार्थ एवं महाराणी त्रिशला श्रावक-धर्म की आराधना करते हुए अन्तिम समय में विधि पूर्वक आलोचना एवं अनशन ग्रहण करके १२ वें स्वर्ग में गए और वहां से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष जाएंगे। इससे स्पष्ट है कि साधु एवं श्रावक दोनों मोक्ष के पथिक हैं। चतुर्थ गुणस्थान का स्पर्श करने के बाद यह निश्चित हो जाता है कि वह आत्मा अवश्य ही मोक्ष को प्राप्त करेगा। यह ठीक है कि सम्यक्त्व एवं श्रावकत्व की साधना से ऊपर उठकर ही आत्मा निर्वाण पद को पा सकती है। श्रावक की साधना में मुक्ति प्राप्त नहीं होती। क्योंकि, उक्त साधना में आत्मा पंचम गुणस्थान से आगे नहीं बढ़ती और समस्त कर्म बन्धनों एवं कर्म-जन्य साधनों से सर्वथा मुक्त होने के लिए १४वें गुणस्थान को स्पर्श करना आवश्यक है। और उस स्थान तक साधुत्व की साधना करके ही पहुंचा जा सकता है। अतः भगवान के माता-पिता यहां के आयुष्य को पूरा करके १२ वें स्वर्ग में गए, वहां से महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य भव करके दीक्षा ग्रहण करेंगे और श्रमणत्व की साधना करके समस्त कर्म बन्धनों को तोड़ कर सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्तबनेंगे।
कल्पसूत्र की सुबोधिका वृत्ति में लिखा है कि आवश्यक नियुक्ति में बताया है कि भगवान के