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________________ ४३२ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध इस परमार्थ को जानकर। निव्वत्तदसाहसि-दस दिनों के निर्वर्तित होने तथा। वुवंतसि-व्युत्क्रान्त हो जाने एवं। सूइभूयंसि-शुद्ध होने पर।विपुलं-बहुत।असणपाणखाइमसाइमं-अशन, पान, खादिम और स्वादिम पदार्थ। उवक्खडाविंति २ त्ता-तैयार करवा कर। मित्त-मित्र। नाइ-ज्ञाति। सयण-स्वजन। संबंधिवग्गं-सम्बन्धि वर्ग को। उवनिमंतंति-निमंत्रित करते हैं। उवनिमंतित्ता-और उन्हें निमंत्रण करके फिर। बहवे-बहुत से। समणमाहणकिवणवणीमगाहि-शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, भिखारी तथा।भिच्छुडगपंडरगाईणभस्म आदि को शरीर में लगाकर भिक्षा मांगने वाले अन्य भिक्षुगणों को।विच्छड्डंति-भोजन कराते हैं। विगोविंतिविगोपन करते हैं। विस्साणिंति-विशेष रूप से आस्वादन करते हैं। दायारेसु दाणं पजभाइंति-याचक जनों में बांटते हैं और सब को भोजन कराते हैं फिर। विच्छड्डित्ता-शाक्यादि को देकर। विग्गो०-विगोपन कर। विसाणित्ता-आस्वादन कर।दाया पजभाइत्ता-याचक जनों में बांट करके। मित्तेनाइ-मित्र ज्ञाति जनों को। भुंजाविंति भोजन कराया। मित्त भुंजावित्ता-मित्रादि को भोजन करवा कर फिर। वग्गेणं-वर्ग आदि के सन्मुख। इमेयारूवं-इस प्रकार। नामधिग्जं-नाम करण। कारविंति-करते हैं। जओ णं पभिइ-जिस दिन से लेकर।इमे कुमारे-यह कुमार।ति० ख०-त्रिशला क्षत्रियाणी की।कुच्छिसि-कुक्षि में। गब्भे-गर्भपने।आहूएआया है। तओ णं-तब से। पभिइ-लेकर। इमं कुलं-हमारा यह कुल। विपुलेणं-विपुल विस्तीर्ण रूप से। हिरन्नेणं-हिरण्य-चान्दी।सुवण्णेणं-सुवर्ण। धणेणं-धन। धन्नेणं-धान्यादि से तथा।माणिक्केणं-माणिक्य से। मुत्तएणं-मोतियों से और। संखसिलप्पवालेणं-शंख शिला तथा प्रवाल-मूंगा आदि से। अतीव २अत्यन्त। परिवड्ढइ-वृद्धि को प्राप्त हुआ है। णं-वाक्यालंकार में है। ता-अंतः।कुमारे वद्धमाणे-इस कुमार का नाम वर्द्धमान हो अर्थात् मैं इस कुमार का वर्द्धमान नाम रखता हूं। , मूलार्थ-जिस रात को श्रमण भगवान महावीर त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में आए उसी समय से उस ज्ञातवंशीय क्षत्रिय कुल में हिरण्य-चांदी, स्वर्ण, धन, धान्य, माणिक, मोती, शंखशिला और प्रवालादि की अभिवृद्धि होने लगी। श्रमण भगवान महावीर के जन्म के ग्यारहवें दिन शुद्ध हो जाने पर उनके माता-पिता ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम पदार्थ बनवाए और अपने मित्र , ज्ञाति, स्वजन और सम्बन्धि वर्ग को निमंत्रित किया और बहुत से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, वनीपक तथा अन्य तापसादि भिक्षुओं को भोजनादि, पदार्थ दिए।अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन और सम्बधि वर्ग को प्रेमपूर्वक भोजन कराया। भोजन आदि कार्यों से निवृत्त होने के पश्चात् उनके सामने कुमार के नामकरण का प्रस्ताव रखते हुए सिद्धार्थ ने बताया कि यह बालक जिस दिन से त्रिशला देवी की कुक्षि में गर्भ रूप से आया है तब से हमारे कुल में हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, माणिक, मोती, शंख, शिला और प्रवालादि पदार्थों की अत्यधिक वृद्धि हो रही है। अतः इस कुमार का गुण सम्पन्न 'वर्द्धमान' नाम रखते हैं। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में भगवान महावीर के नामकरण का उल्लेख किया गया है। भगवान के जन्म के दस दिन के पश्चात् शुद्धि कर्म किया गया और अपने स्नेही-स्वजनों को बुला कर उन्हें भोजन कराया और अनेक श्रमण-ब्राह्मणों एवं भिक्षुओं को भी यथेष्ट भोजन दिया गया। उसके बाद सिद्धार्थ राजा ने सबको यह बताया कि इस बालक के गर्भ में आते ही हमारे कुल में धन-धान्य आदि की
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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