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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
अणते-अनन्त । अणुत्तरे- प्रधान । अव्वाघाए- निर्व्याघात-व्याघात रहित । निरावरणे- निरावरण- आवरण रहित । कसिणे - सम्पूर्ण । पडिपुणे - प्रतिपूर्ण । वर-प्रधान । केवलवरनाण- केवल ज्ञान । दंसणे - केवल दर्शन से। समुप्पण्णे - समुत्पन्न हुए और । साइणा-स्वाति नक्षत्र में । भगवं भगवान । परिनिव्वुए मोक्ष को प्राप्त हुए।
मूलार्थ - उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के पांच कल्याणक उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुए। जैसे कि भगवान उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में देवलोक से च्यव कर गर्भ में उत्पन्न हुए, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में ही गर्भ से गर्भान्तर में संहरण किए गए। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में. ही भगवान ने जन्म लिया। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में ही भगवान मुंडित हो कर सागार से अनगारसाधु बने और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में ही भगवान ने अनन्त, प्रधान, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण केवल ज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त किया और स्वाति नक्षत्र में भगवान मोक्ष पधारे।
हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि भगवान महावीर के पांच कल्याण उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुए और एक स्वाति नक्षत्र में हुआ। भगवान का गर्भ में आना, गर्भ का गर्भान्तर में संहरण, जन्म, दीक्षा एवं केवल ज्ञान की प्राप्ति ये पांचों कार्य उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुए और स्वाति नक्षत्र में निर्वाण पद प्राप्त किया। इससे ६ कल्याणक सिद्ध होते हैं, परन्तु वस्तुतः देखा जाए तो कल्याणक ५ ही हुए हैं। गर्भ संहरण को नक्षत्र साम्य की दृष्टि से साथ में गिन लिया गया है। परन्तु, इसे कल्याणक नहीं कह सकते। यह तो एक आश्चर्य जनक घटना है। यदि इसके उल्लेख मात्र से इसे कल्याणक माना जाए तो फिर भगवान ऋषभ देव के भी ६ कल्याणक मानने पड़ेंगे। क्योंकि आगम में लिखा है कि भगवान के पांच कार्य उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में और एक अभिजित् नक्षत्र में हुआ है'। परन्तु इतना उल्लेख मिलने पर भी उनके ५ कल्याणक माने जाते हैं। क्योंकि विशिष्ट बात को कल्याणक नहीं माना जाता है। केवल नक्षत्र की समानता के कारण उसका साथ में उल्लेख कर दिया जाता है।
प्रस्तुत सूत्र में ‘उस क़ाल और उस समय में' इन दो शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसमें 'काल' चौथे आरे का बोधक है और 'समय' जिस समय भगवान गर्भ आदि में आए उस समय का संसूचक है। काल से पूरे युग का और समय से वर्तमान काल का परिज्ञान होता है ।
भग - संपन्न व्यक्ति को भगवान कहा गया है। भग शब्द के १४ अर्थ होते हैं- १ अर्क, २ ज्ञान, ३ महात्मा, ४ यश, ५ वैराग्य, ६ मुक्ति, ७ रूप, ८ वीर्य (शक्ति), ९ प्रयत्न, १० इच्छा, ११ श्री, १२ धर्म, १३ ऐश्वर्य और १४ योनि । इनमें प्रथम और अन्तिम । (अर्क और योनि) दो अर्थों को छोड़कर शेष सभी अर्थ भगवान में संघटित होते हैं ।
'हत्थुत्तरे' शब्द का अर्थ है जिस नक्षत्र के आगे हस्त नक्षत्र है उसे 'हत्थुत्तरे' नक्षत्र कहते हैं। गणना करने से उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र ही आता है।
इस विषय को विस्तार से स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
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पंच उत्तरासाढ़े अभीड़ छट्ठे । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ।