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________________ ४१८ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध मूलार्थ-वह साधु या साध्वी परस्पर अपनी आत्मा के विषय में की हुई क्रिया-जो कि कर्म बन्धन का कारण है, को न मन से चाहे, न वचन से कहे, और न काया से कराए। जैसे कि परस्पर चरणों का प्रमार्जन आदि करना।शेष वर्णन त्रयोदशवें अध्ययन के समान जानना चाहिए। यह साधु का संपूर्ण आचार है, उसे सदा सर्वदा संयम को परिपालन करने में प्रयत्नशील रहना चाहिए। इस प्रकार मैं कहता हूं। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में पारस्परिक क्रिया का निषेध किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि साधु एक-दूसरे साधु को यह न कहे कि तू मेरे पैर आदि की मालिश कर और मैं तेरे पैर की मालिश करूं। परन्तु, इसका यह अर्थ नहीं है कि साधु किसी साधु की बीमारी आदि की अवस्था में गुरु आदि की आज्ञा से उसकी सेवा भी नहीं करे। यह निषेध केवल बिना कारण ऐसी क्रियाएं करने के लिए किया गया है। जिससे जीवन में आरामतलबी एवं प्रमाद न बढ़े और स्वाध्याय का समय केवलं शरीर को सजाने एवं संवारने में ही पूरा न हो जाए। इससे स्पष्ट होता है कि विशेष कारण उपस्थित होने पर की जाने वाली सेवा-शुश्रूषा का निषेध नहीं किया गया है। क्योंकि आगम में वैयावृत्य करने से मिलने वाले फल का निर्देश करते हुए बताया है कि यदि वैयावृत्य करते हुए उत्कृष्ट भावना आ जाए तो आत्मा तीर्थंकर गोत्र कर्म का बन्ध करता है । इस प्रकार वैयावृत्य से महानिर्जरा का होना भी बताया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि राग-द्वेष से ऊपर उठकर बिना स्वार्थ से की जाने वाली सेवा-शुश्रूषा का सूत्रकार ने निषेध नहीं किया है। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें। ॥ चतुर्दश अध्ययन (द्वितीया चूला) समाप्त॥ १ यावच्चेणं भंते जीवे किं जणयइ ? वेयावच्चेणं तित्थयर नामगोत्तं कम्मं निबंधइ। उत्तराध्ययन सूत्र २९, ४३। व्यवहार सूत्र, उद्देशक १०। २
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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