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________________ दशम अध्ययन ३८५ त्याग नहीं करना चाहिए। मार्ग की विषमता के कारण ही ऐसे स्थानों पर परठने का निषेध किया गया है, जैसे कि पूर्व के अध्ययनों में ऐसे स्थानों पर हाथ-पैर आदि धोने एवं वस्त्र आदि सुखाने का निषेध किया गया है । अतः यदि ऊपर के स्थानों पर जाने का मार्ग प्रशस्त हो, जीवों की विराधना न होती हो तो साधु उन स्थानों का उपभोग भी कर सकता है। जिस स्थान से कन्द-मूल आदि भीतर से बाहर एवं बाहर से भीतर लाए जा रहे हों तो ऐसे स्थान पर भी साधु को मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। इसका कारण यह है कि संभवतः यह क्रिया स्थान को परठने योग्य बनाने के लिए की जा रही हो, अतः साधु को ऐसे स्थान का भी परठने के लिए उपयोग नहीं करना चाहिए। जिस स्थान पर साधु के उद्देश्य से कोई विशेष क्रियाएं की गई हों, जैसे- स्थान को सम बनाया गया हो, छायादार बनाया गया हो, सुवासित बनाया गया हो, तो जब तक ये स्थान पुरुषान्तर कृत न हो जाएं तब तक साधु को उनका उपयोग नहीं करना चाहिए । इससे यह स्पष्ट होता है कि साधु को सचित्त, जीव-जन्तु एवं हरियाली युक्त तथा सदोष भूमि पर मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। उसे सदा अचित्त जीव-जन्तु आदि से रहित, निर्दोष एवं प्रासुक भूमि पर ही मल-मूत्र का त्याग करना चाहिए । इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - से भि० से जं० जाणे० - इह खलु गाहावई वा गाहावइपुत्ता वा कंदाणि वा जाव बीयाणि वा परिसाडिंसु वा परिसाडिंति वा परिसाडिस्संति वा, अन्न॰ तह॰ नो उ० ॥ से भि० से जं० इह खलु गाहावई वा गा० पुत्ता वा सालीणि वा वीहीणि वा मुग्गाणि वा मासाणि वा कुलत्थाणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा पइरिंसु वा पइरिंति वा पइरिस्संति वा अन्नयरंसि वा तह० थंडिο नो उ० ॥ से भि० २ जं० आमोयाणि वा घासाणि वा भिलुयाणि वा विज्जलयाणि वा खाणुयाणि वा कडयाणि वा पगडाणि वा दरीणि वा पडुग्गाणि वा समाणि वा विसमाणि वा अन्नयरंसि तह० नो उ० ॥ से भिक्खू० से जं० पुण थंडिल्लं जाणिज्जा माणुसरंधणाणि वा महिसकरणाणि वा वसहक० अस्सक० कुक्कुडक॰ मक्कडक॰ हयक लावयक' चट्टयक० तित्तिरक० कवोयकः कविंजलकरणाणि वा अन्नयरंसि वा तह० नो उ० ॥ से भि० से जं० जाणे वेहाणसट्ठाणेसु वा गिद्धपट्ठट्ठा वा तरुपडणट्ठाणेसु वा• मेरुपडणट्ठाणेसु वा• विसभक्खणयठा० अगणिपडणट्ठा॰ अन्नयरंसि वा तह० नो उ० ॥ से भि० से जं० आरामाणि वा उज्जाणाणि वा वणाणि वा वणसंडाणि वा देवकुलाणि वा सभाणि वा पवाणि वा अन्न॰ तह॰ नो उ० ॥ से भि० से जं० पुण० जा० अट्टालयाणि वा चरियाणि वा
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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