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प्रथम अध्ययन, उद्देशक १ बीज या सचित पदार्थ उससे अलग किए जा सकते हैं, तो साधु उन्हें अलग करके उस अचित्त आहार को ग्रहण कर ले। यदि कोई पदार्थ ऐसा है कि उसमें से उन सचित्त पदार्थों को अलग नहीं किया जा सकता है, तो मुभि उस आहार को खाए नहीं, परन्तु एकान्त स्थान में बीज-अंकुर एवं जीव-जन्तु से रहित अचित्त भूमि पर यतना-पूर्वक परठ-डाल दे। इसी तरह आधाकर्मी आहार भी भूल से आ गया हो तो उसे भी एकान्त स्थान में परठ दे। इससे स्पष्ट है कि साधु सचित्त एवं आधाकर्म दोष आदि युक्त आहार का सेवन न करे। भगवान महावीर ने सोमिल ब्राह्मण को स्पष्ट शब्दों में बताया कि साधु के लिए सचित्त आहार अभक्ष्य है। ये ही शब्द भगवान पार्श्वनाथ एवं थावच्चा पुत्र ने शुकदेव संन्यासी को कहे हैं। श्रावक के व्रतों का उल्लेख करते समय इस बात को स्पष्ट किया गया है कि श्रावक साधु को प्रासुक एवं निर्दोष आहार देवे। .
यह उत्सर्ग मार्ग है और साधु को यथाशक्ति इसी मार्ग पर चलना चाहिए। परन्तु, जीवन सदा एक सा नहीं रहता। कभी-कभी सामने कठिनाइयां भी आती हैं। उस समय संयम की रक्षा के लिए साधु क्या करे? इसके लिए वृत्तिकार ने बताया है- 'उत्सर्ग मार्ग में साधु आधाकर्म आदि दोषों से युक्त आहार स्वीकार नहीं करे। परन्तु अपवाद मार्ग में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का ज्ञाता गीतार्थ मुनि दोषों की न्यूनता या अधिकता का विचार करके उसे ग्रहण कर सकता है। द्रव्य का अर्थ है- द्रव्य (पदार्थ) का मिलना दुर्लभ हो। क्षेत्र- ऐसा क्षेत्र जिसमें शुद्ध पदार्थ नहीं मिलते हों या सचित्त रज की बहुलता हो। काल-दुर्भिक्ष आदि काल में और भाव-रोग आदि की अवस्था में। इन कारणों के उपस्थित होने पर साधु आधाकर्म आदि दोष युक्त आहार भी ले सकता है। यह वृत्तिकार का अभिमत है।
सूत्रकृताङ्ग सूत्र में भी कहा है कि आधाकर्म आहार करने वाला साधु एकान्त रूप से सात या आठ कर्म का बन्ध करता है। ऐसा नहीं कहना चाहिए और ऐसा भी नहीं कहना चाहिए कि वह सातआठ कर्म का बन्ध नहीं करता है। भगवती सूत्र में गौतम स्वामी द्वारा पूछे गए-तथारूप के श्रमण-माहण को अप्रासुक एवं अनेषणीय आहार देने से दाता को क्या होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर फरमाते हैं कि उसे अल्प पाप एवं बहुत निर्जरा होती है। .१. भगवती १८, १० २ पुफिया सूत्र, ज्ञाता सूत्र। ३ औपपातिक सूत्र, रायप्रश्नीय सूत्र, उपासकदशाङ्ग सूत्र।
४ तथाप्रकारम् - एवं जातीयमशुद्धमशनादिचतुर्विधमप्याहारं 'परहस्ते दातृहस्ते परपात्रे वा स्थितम्' 'अप्रासुकं '-सचित्तम् 'अनेषणीयम्' आधाकर्मादिदोषदुष्टम् 'इति ' एवं मन्यमानः 'स' भावभिक्षुः सत्यपि लाभे न प्रतिगृण्हीयादित्युत्सर्गतः, अपवादतस्तु द्रव्यादि ज्ञात्वा प्रतिगृण्हीयादपि, तत्र द्रव्यं दुर्लभद्रव्यं , क्षेत्रं साधारणद्रव्यलाभरहितं सरजस्कादिभाबितं वा कालो दुर्भिक्षादिः भावो ग्लानतादिः, इत्यादिभि कारणरुपस्थितैः अल्पबहुत्वं पर्यालोच्य गीतार्थों गृण्हीयादिति।
_ - आचाराङ्ग २,११,१वृत्ति। '. ५ अहाकम्माणि भुञ्जन्ति, अन्नमन्ने सकम्मणा।
उवलिते त्ति जाणिज्जा अणुवलित्ते त्ति वा पुणो॥ एएहिं दोहि ठाणेहिं ववहारो न विज्जई।
एएहिं दोहिं ठाणेहिं अणायारं तु जाणए ।। - सूत्रकृताङ्ग २,५,८,९। । ६ समणोवासगस्सणं भंते! तहारूर्वसमणंवा माहणंवा अफासुएणंअणेसणिज्जेणं असणं पाणंजाव पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ ? गोयमा ! बहुतरिया से निज्जरा कज्जइ, अप्पतराए से पावकम्मे कज्जइ।
- भगवती सूत्र, शतक ८, उदेशक ६।