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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध उल्ली आदि, मर्कट जीव-जाला आदि जीव विशेष न हों ऐसे स्थानों में जाकर उस आहार से। विगिंचिय २-उन जीवों को अलग २ कर। उम्मीसं-उसमें मिश्रित हों तो। विसोहिय २-विशोधित कर।तओ-तदनन्तर।संजयामेवसाधु। |जिज वा-उस आहार को खाए। पीइज वा-अथवा पीए। जं च-यदि वह उस आहार को। भोत्तए वा-खाने। पायए वा-अथवा पीने में। नो संचाएजा-समर्थ न हो तो फिर। से-वह भिक्षु। तं-उस आहार को। आयाय-लेकर। एगंतमवक्कमिज्जा-एकान्त स्थान में चला जाए, जाकर। अहे झामथंडिलंसि वा-दग्ध स्थान पर या। अट्ठिरासिंसि वा-अस्थियों की राशि-ढेर पर। किट्टरासिंसि वा-अथवा लोह के मल के ढ़ेर पर। तुसरासिंसिवा-तुष राशि के स्थान।गोमयरासिंसि वा-गोबर के ढेर पर अथवा।अण्णयरंसि-इसी प्रकार के अन्य प्रासुक पदार्थों के ढेर पर अथवा। तहप्पगारंसि-पूर्व सदृश अन्य प्रासुक स्थान पर। थंडिलंसि-स्थंडिल में। पडिलेहिय २-आँखों से भली-भांति देख कर। पमज्जिय २-रजोहरण से भूमि को प्रमार्जित कर के।तओतदनन्तर। संजयामेव-सम्यक् उपयोगपूर्वक वह साधु। परिट्ठवेज्जा-उस आहार को त्याग दे। ..
मूलार्थ-आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी इन पदार्थों का अवलोकन करके यह जाने कि यह अन्न-पानी, खादिम और स्वादिम पदार्थ, द्वीन्द्रियादि प्राणियों से, शाली चावल आदि के बीजों से और अंकुरादि हरी सब्जी से संयुक्त है या मिश्रित है या सचित्त जल से गीला है तथा सचित्त मिट्टी से अवगुंठित है। यदि इस प्रकार का आहार-पानी, खादिम, स्वादिम आदि पदार्थ गृहस्थ के घर में या गृहस्थ के पात्र में हों तो साधु उसे अप्रासुक-सचित्त तथा अनेषणीय-सदोष मान कर ग्रहण न करे, यदि भूल से उस आहार को ग्रहण कर लिया है तो वह भिक्षु उस आहार को लेकर एकान्त स्थान में चला जाए और एकान्त स्थान में या आराम-उद्यान या उपाश्रय में जहां पर द्वीन्द्रिय आदि जीव नहीं हैं, गोधूमादि बीज नहीं हैं और अंकुरादि हरी नहीं है, एवं ओस और जल नहीं है अर्थात् तृणों के अग्रभाग पर जल नहीं है, ओस बिन्दु नहीं हैं, द्वीन्द्रियादि जीव जन्तु एवं उनके अण्डे आदि नहीं हैं, तथा मकड़ी के जाले एवं दीमकों के घर आदि नहीं हैं, ऐसे स्थान पर पहुंच कर सदा यता करने वाला साधु उस आहार में से सचित्त पदार्थों को अलग करके उस आहार एवं पानी का उपभोग कर ले। यदि वह उसे खाने या पीने में असमर्थ है तो साधु उस आहार को लेकर एकांत स्थान पर चला जाए और वहां जाकर दग्धस्थंडिल भूमि पर, अस्थियों के ढेर पर, लोह के कूड़े पर, तुष के ढेर पर और गोबर के ढेर पर या इसी प्रकार के अन्य प्रासुक एवं निर्दोष स्थान पर जाकर उस स्थान को आंखों से अवलोकन करके और रजोहरण से प्रमार्जित करके उस आहार को उस स्थान पर परठ-डाल दे।
हिन्दी विवेचन- साधु हिंसा का सर्वथा त्यागी है और आहार के बनाने में हिंसा का होना अनिवार्य है। इसलिए साधु के लिए भोजन बनाने का निषेध किया गया है। परन्तु, संयम निर्वाह के लिए उसे आहार करना पड़ता है। अतः उसके लिए बताया गया है कि वह गृहस्थ के घर में जाकर निर्दोष एवं एषणीय आहार ग्रहण करे। यदि कोई गृहस्थ सचित्त एवं आधाकर्मी आदि दोषों से युक्त आहार दे या सचित्त पानी से हाथ धोकर आहार दे या आहार सचित्त रज से युक्त है, तो साधु उसे स्वीकार न करे। वह स्पष्ट शब्दों में कहे कि ऐसा दोष युक्त आहार मुझे नहीं कल्पता। यदि कभी सचित्त पदार्थों से युक्त आहार आ गया हो- जैसे गुठली सहित खजूर या ऐसे ही बीज युक्त कोई अन्य पदार्थ आ गए हैं और वह गुठली,