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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध
से अतिरिक्त। फासुयं-प्रासुक भूमि में। गमणाए-जाने की। अभकंखे-इच्छा रखता हो तो। से-वह-भिक्षु। पुण-फिर। निसीहियं-स्वाध्याय भूमि के सम्बन्ध में। जाणिज्जा-जाने। सअंडं-जो भूमि अण्डादि से युक्त है तो। तह-तथाप्रकार की भूमि को। अफासुयं-अप्रासुक और अनेषणीय। लाभे संते-मिलने पर। नो चेइस्सामिगृहस्थ से कहे कि मैं इस प्रकार की भूमि में नहीं ठहरूंगा।
सेभिक्खू- वह साधुया साध्वी।निसीहियं-स्वाध्याय भूमि में।गमणाए-जाने की।अभिकंखेज्जाइच्छा करे तो।से-वह।पुण-फिर।नि०-स्वाध्याय भूमि के सम्बन्ध में यह जाने कि।अप्पपाणं-जहां पर द्वीन्द्रियादि प्राणी नहीं हैं।अप्पबीयं-जहां पर बीजादि नहीं हैं। जाव-यावत्। संताणयं-जाले आदि नहीं हैं। तह-तथाप्रकार की। निसीहियं-स्वाध्याय भूमि। फासुयं-प्रासुक और एषणीय मिलने पर। चेइस्सामि-ठहरूंगा, इस प्रकार कहे अर्थात् वहां ठहर कर स्वाध्याय करे। एवं-इस प्रकार। सिज्जागमेणं-शय्या अध्ययन के अनुसार। नेयव्वं-जान लेना चाहिए। जाव-यावत्। उदयप्पसूयाइं-उदक प्रसूत कन्दादि जहां पर हों वहां न रहे। ..
___ अब सूत्रकार-जो साधु वहां पर स्वाध्याय करने के लिए गए हुए हैं उनके विषय में कहते हैं- जे-जो। तत्थ-वहां पर। दुवग्गा-दो साधु। तिवग्गा-तीन साधु। चउवग्गा-चार साधु। पंचवग्गा-अथवा पांच साधु।
अभिसंधारिंति-सन्मुख हों। निसीहियं-स्वाध्याय भूमि में। गमणाए-जाने के लिए तैयार हों या वहां चले जाएं फिर। ते-वे साधु। अन्नमन्नस्स-परस्पर एक-दूसरे के।कार्य-शरीर को। नो आलिंगिज वा-आलिंगन न करें अथवा। विलिंगिज्ज वा-जिस से मोह का उदय होता हो इस प्रकार का आलिंगन न करें तथा। चुंबिज वा-मुख चुम्बन न करे अथवा। दंतेहिं वा-दांतों से। नहेहिं वा-नखों से।अच्छिदिज वा-शरीर को परस्पर छेदन न करें। वुच्छिं-जिससे विशेष मोहानल प्रदीप्त हो इस प्रकार की पारस्परिक कुचेष्टा न करें। एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। तस्स-उसभिक्खस्स-भिक्ष का समग्र आचार है। जाव-यावत। जं-जो कि। सव्वटठेहिं-सर्व अर्थों से। सहिए-सहित है। समिए-पांच समितियों से युक्त है, इस में। सया-सदा संयम पालन करने में। जएज्जायत्नशील हो तथा। सेयमिणं-इस आचार का पालन करना श्रेय है-कल्याण रूप है इस प्रकार। मन्निज्जासिमाने।त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं। निसीहिया सत्तिक्कयं-निषीधिका अध्ययन,समाप्त हुआ।
मूलार्थ-जो साधु या साध्वी प्रासुक अर्थात् निर्दोष स्वाध्याय भूमि में जाना चाहे तब वह स्वाध्याय भूमि को देखे और स्वाध्याय भूमि अण्डे आदि से युक्त हो तो इस प्रकार की अप्रासुक, अनेषणीय स्वाध्याय भूमि को जान कर कहे कि मैं इसमें नहीं ठहरूंगा। यदि स्वाध्याय भूमि में प्राणी, बीज यावत् जाला आदि नहीं है तो उसे प्रासुक एवं एषणीय जान कर कहे कि मैं यहां पर ठहरूंगा। शेष वर्णन शय्या अध्ययन के अनुसार जानना चाहिए। जैसे जहां पर उदक से उत्पन्न हुए कन्दादिक हों वहां पर भी न ठहरे।
उस स्वाध्याय भूमि में गए हुए दो, तीन, चार, पांच साधु परस्पर शरीर का आलिंगन न करें, न विशेष रूप से शरीर का आलिंगन करें, न मुख चुम्बन करें, दान्तों से या नखों से शरीर का छेदन भी न करें, और जिस क्रिया या चेष्टा से मोह उत्पन्न होता हो इस तरह की क्रियाएं भी न करें। यही साधु और साध्वी का समग्र आचार है। जो साधु साधना के यथार्थ स्वरूप को जानता है, पांच समितियों से युक्त है और इस का पालन करने में सदा प्रयत्नशील है, वह यह माने कि इस आचार का पालन करना ही मेरे लिए कल्याण प्रद है। इस प्रकार मैं कहता हूं।