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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध 1 नहीं हो सकतीं। इसलिए मुनि इन छः कारणों से आहार करता है। इसी तरह आहार का त्याग करने के भी छ: कारण हैं - १ - बीमारी - बुखार आदि के आने पर साधु को आहार का त्याग कर देना चाहिए। ज्वर आहार करने से वह जल्दी ठीक नहीं होता । इसलिए रोग के समय उपवास बहुत लाभदायक रहता है आयुर्वेद में भी रोग चिकित्सा में लंघन - उपवास को श्रेष्ठ माना है। महात्मा गांधी ने तो उपवास के द्वारा कई रोगों की चिकित्सा की है। अतः रोग के समय साधु को आहार का त्याग कर देना चाहिए । २ - उपसर्गकष्ट आने पर साधु को तप करना चाहिए । ३ - क्षुधा - भूख शांत होने पर आहार का त्याग कर देना चाहिए । क्योंकि बिना भूख के खाने से अनेक रोग होने की संभावना है और उससे संयम - साधना में भी दोष लग सकता है। अत: भूख न हो तो नहीं खाना चाहिए। ४ - ब्रह्मचर्य का परिपालन करने के लिए आहार का त्याग कर देना चाहिए। यदि मन में विकार जागृत होते हों तो साधु को तपस्या करनी चाहिए। गीता में लिखा है कि निराहार - आहार का त्याग करने वाले व्यक्ति को विषय विकार नहीं सताते। ५- जीव रक्षा के लिए आहार का त्याग करना चाहिए। जैसे कि वर्षा के पड़ते हुए अप्काय आदि की रक्षा के लिए आहार.. का त्याग कर देना चाहिए। ६-मृत्यु के निकट आने पर आहार का त्याग करके अनशन संथारा स्वीकार करना चाहिए। इस तरह आहार करने की आवश्यकता होने पर साधु को आहार स्वीकार करना चाहिए। परन्तु उस समय कैसा आहार स्वीकार करे, इसका समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम् - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठे समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पाणेहिं वा पणगेहिं वा बीएहिं वा हरिएहिं वा संसत्तं उम्मिस्सं सीओदएण वा ओसित्तं रयसा वा परिघासियं तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परहत्थंसि वा परंपायंसि वा अफासुयं अणेसणिज्जंति मन्नमाणे लाभेऽवि संते नो डिग्गाहिज्जा | से य आहच्च पडिग्गाहिए सिया से तं आयाय एगंतमवक्कमिज्जा एगंतमवक्कमित्ता अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए अप्पहरिए अप्पोसे अप्पुदए अप्पुत्तिंगपणगदग - मट्टियमक्कड़ासंताणए विगिंचिय २ उम्मीसं विसोहिय २ तओ संजयामेव भुंजिज्ज वा पीइज्ज वा, जं च नो संचाइज्जा भुत्तए वा पायए वा से तमायाय एगंमतवक्कमिज्जा, अहे झामथंडिलंसि वा अट्ठिरासिंसि वा किट्टरासिंसि वा तुसरासिंसि वा गोमयरासिंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि पडिलेहिय पडिलेहिय ४ १ छहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे आहारमाहारेमाणे णाइक्कमइ तंजहा वेयण, वेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए तह पाणवत्तियाए छट्ठे पुण धम्मचिंताए । - स्थानाङ्ग सूत्र, ६ । २ निराहारस्य देहिनः विषयाविनिवर्तन्ते । -गीता २ । ३ छहिं ठाणेहि समणे निग्गंथे आहारं वोछिन्दमाणे णाइक्कमड़ तंजहा- आतंके, उवसग्गे, तितिक्खणे, बंभरगुत्तीए, पाणिदया, तवहेडं सरीरवुच्छेयणट्ठा ए। स्थानाङ्ग सूत्र स्थान ६ ।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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