SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स॥ श्री आचाराङ्ग सूत्रम् द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम अध्ययन पिण्डैषणा प्रथम उद्देशक इस बात को हम आचाराङ्ग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध को प्रारम्भ करते समय बता चुके हैं कि आचाराङ्ग सूत्र में आचार का वर्णन किया गया है। आचार पांच प्रकार का है- १-ज्ञानाचार, २-दर्शनाचार, ३-चारित्राचार, ४-तपाचार और ५-वीर्याचार । प्रथम श्रुतस्कन्ध में पांचों आचारों का सूत्र शैली में वर्णन किया गया है। इसलिए उनके वर्णन में संक्षिप्तता एवं गम्भीरता आ गई है। और प्रस्तुत श्रुतस्कन्ध में प्रमुख रूप से चारित्राचार का उपदेश शैली में वर्णन किया गया है। साधना के लिए चारित्राचार आवश्यक है। अतः प्रथम श्रतस्कन्ध में किए गए चारित्राचार विषयक संक्षिप्त वर्णन का प्रस्तुत तस्कन्ध में विस्तार किया गया है। . चारित्र साधना का प्रधान अंग है। ज्ञान, दर्शन, तप एवं वीर्य को चारित्र से गति मिलती है, ज्ञान आदि साधना में तेजस्विता आती है। वस्तुतः देखा जाए तो ज्ञान साधनों का मूल्य उसे चारित्र का साकार रूप देने में है। ज्ञान जब तक आचरण में नहीं लाया जाएगा तब तक उसका यथार्थ एवं अभिलषित फल मोक्ष नहीं मिल सकता। जब ज्ञान और चारित्र की समन्वित साधना होगी तभी आत्मा सर्व कर्म बन्धन से मुक्त हो सकेगा। इसलिए चारित्र की सम्यक् साधना आराधना करने के लिए दूसरे श्रुतस्कन्ध का अध्ययन करना जरूरी है। जीवन की पहली आवश्यकता आहार है। भले ही गृहस्थ हो या साधु, आहार के बिना लौकिक एवं लोकोत्तर कोई भी साधना नहीं हो सकती। अतः प्रस्तुत श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में यह बताया गया है कि साधु को संयम परिपालन करने के लिए किस तरह से एवं कैसा आहार करना चाहिए। आगम में इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि साधु कुछ कारणों से आहार ग्रहण करता है और कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में आहार का त्याग भी कर देता है। आगम में आहार करने के छ: कारण बताए हैं-१-क्षुधावेदनीय-भूख की पीड़ा सहन नहीं हो तो साधु आहार कर सकता है। २-- वैयावृत्य-सेवा करने के लिएसंयम की, कुल की, गण की, आचार्य, उपाध्याय की, रोगी की, नवदीक्षित आदि की सेवा-शुश्रूषा करने के लिए शारीरिक शक्ति अपेक्षित है और उसके लिए आहार करना भी आवश्यक है। ३-ईर्या-समिति का परिपालन करने के लिए। ४- संयम का पालन करने के लिए। ५- प्राणों को धारण करने के लिए। ६-धर्म-चिन्तन के लिए आहार ग्रहण करे। क्योंकि ये क्रियाएं भी शारीरिक बल के बिना भली-भांति
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy