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________________ षष्ठ अध्ययन, उद्देशक १ ३३९ यावत् न प्रतिगृह्णीयात् । स्यात् स परः उपनीय प्रतिग्रहकं निसृजेत्, स पूर्वमेव आलोचयेत् आयुष्मति ! भगिनि ! त्वं चैव स्वांगिकं पतद्ग्रहकं अन्तोन्तेन प्रतिलेखिष्यामि। केवली ब्रूयात् आदानमेतत् अन्तः पतद्ग्रहके प्राणानि वा बीजानि वा हरितानि वा अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टं यत् पूर्वमेव पतद्ग्रहकं अन्तोन्तेन प्रति० साण्डानि, सर्वे आलापकाः भणितव्याः यथावस्त्रैषणायाम्, नानात्वं तैलेन वा घृतेन वा नवनीतेन वा वसया वा स्नानादि यावत् अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थंडिले प्रतिलिख्य २, प्रमृज्य २ ततः संयतमेव, आमृज्यात् । एवं खलु तस्य भिक्षोः सामग्र्यं सदा यतेत । इति ब्रवीमि । - पदार्थ - से- यदि वह । भिक्खू वा साधु अथवा साध्वी । पायं पात्र की। एसित्तए - गवेषणा करनी । अभिकंखिज्जा चाहता है तो। से वह साधु । जं- जो । पुण- फिर । पायं - पात्र के सम्बन्ध में यह । । जाणिज्जाजाने । तंजहा-जैसे कि । अलाउयपायं वा तूंबे का पात्र है अथवा | दारुपायं - काष्ठ का पात्र है अथवा । मट्टिया पायं वा-मिट्टी का पात्र है और । तहप्पगारं पायं तथाप्रकार के पात्र हैं। जे- जो । निग्गंथे-निर्ग्रन्थ। तरुणेयुवक है। जाव - यावत् । थिरसंघयणे- स्थिर संहनन वाला है अर्थात् जिसका शरीर दृढ़ है। से वह साधु । एगं पायं - एक ही पात्र । धारिज़ा - धारण करे। नो बिइयं दूसरा पात्र न रखे। से भिक्खू वा वह साधु या साध्वी । अद्धजोयणमेराए-अर्द्ध योजन की मर्यादा से। परं उपरान्त । पायपडियाए - पात्र ग्रहण की प्रतिज्ञा से । गमणाएजाने के लिए। नो अभिसंधारिजा- मन में विचार न करे। भिक्खू वा० - वह साधु या साध्वी से वह । जं- जो फिर । पायं पात्र को । जाणिज्जा - जाने । . अस्सिंपडियाए - साधु की प्रतिज्ञा से गृहस्थ ने एगं साहम्मियं - एक साधर्मी साधु का । समुद्दिस्स उद्देश्य रख कर अर्थात् साधु के निमित्त से । पाणाई ४ - प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का विनाश करके पात्र तैयार किया है, शेष वर्णन । जहा- जैसे। पिंडेसणाए-पिण्डैषणा अध्ययन में किया गया है उसी तरह । चत्तारि-चार आलावगाआलापक जानने चाहिएं। पंचमे-पांचवें आलापक में। बहवे बहुत से । समण० - शाक्यादि श्रमण तथा ब्राह्मण आदि के लिए | पगणिय २- गिन-गिन कर अर्थात् उनका उद्देश्य रखकर पात्र बनाए। तहेव-शेष वर्णन जैसे पिण्डैषणा अध्ययन में आहार के विषय में किया गया है उसी प्रकार यहां पर अर्थात् पात्र के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए । से भिक्खू वा - वह साधु या साध्वी । अस्संजए - असंयत, गृहस्थ । भिक्खुपडियाए - साधु की प्रतिज्ञा से । बहवे - बहुत से। समणमाहणे० - शाक्यादि श्रमण तथा ब्राह्मणादि के विषय में । वत्थेसणाऽऽलावओजैसे वस्त्रैषणा आलापक में कहा गया है उसी प्रकार पात्रैषणा आलापक भी जानना चाहिए। से भिक्खू वा वह साधु या साध्वी । से- वह साधु । जाई - जो । पुण- फिर । विरूवरूवाई - नाना प्रकार के । पायाइं पात्रों के सम्बन्ध में। जाणिज्जा - जाने । महद्धणमुल्लाइं - जो बहुमूल्य हैं, कीमती हैं। तंजहा- जैसे कि । अयपायाणि वा - लोहे के पात्र । तउपाया०- कली के पात्र | तंबपाया० - ताम्बे के पात्र । सीसगपा० - सीसे के पात्र । हिरण्णपा० - चान्दी के पात्र। सुवण्णपा०- सुवर्ण- सोने के पात्र । रीरिअयापा० - पीतल के पात्र । हारपुडपा० - लोहविशेष के पात्र । मणिकायकंसपाया०-मणि, कांच और कांसी के पात्र । संखसिंगपा० - संख-शंख और शृंग के पात्र । दंतपा०दान्त के पात्र । चेलपा० - व ० - वस्त्र के पात्र । सेलपा०-पत्थर के पात्र तथा । चम्मपा० - चर्म के पात्र और अन्नयराईअन्य। तहप्प॰- इसी तरह के । विरूवरूवाइं- विविध । महद्धणमुल्लाई मूल्य वाले। पायाइं पात्रों को। अफासुयं 1
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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