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________________ ३२६ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध 1 T खूंटी आदि पर । गिलुगंसि वा गृह के द्वारों पर । उसुयालंसि वा-या ऊखल पर। कामजलंसि वा - स्नान के पीठ पर अर्थात् चौकी पर । अन्नयरे अन्य । तहप्प० - तथा प्रकार के । अंतलिक्खजाए - अन्तरिक्ष भूमि से ऊंचे स्थान पर जो । दुब्बद्धे ऊपर भली-भांति से बान्धा हुआ नहीं है। दुन्निक्खित्ते - दुष्ट प्रकार से भूमि पर रोपण किया हुआ है और जो । अणिकंपे निश्चल स्थान नहीं है। चलाचले-वायु के द्वारा इधर-उधर हो रहा है। नो आ॰ नो प० - आताप या परिताप न दे। से भिक्खू वा० - वह साधु या साध्वी । अभि० यदि चाहे वस्त्र को । आयावित्तएआताप दे। तह०-तथा प्रकार के । वत्थं वस्त्र को । कुडियंसि वा घर की दीवार पर । भित्तंसि वा-नदी के तट पर। सिलंसि वा-शिला पर । लेलुंसि वा - शिला खंड पर अर्थात् किसी पत्थर पर । अन्नयरे वा अथवा अन्य। तहप्प - इसी प्रकार के । अंतलिक्ख अन्तरिक्ष स्थान पर जाव - यावत् । नो आयाविज्ज वा० प० - आताप और परिताप न दे-सुखाए नहीं । से भि० - वह साधु या साध्वी यदि चाहे । वत्थं - वस्त्र को । आया० प० - आताप या परिताप देना तो । तह० - तथाप्रकार के । वत्थं वस्त्र को । खंधंसि वा स्तम्भ पर मं० - मंजे पर । मा० - माले पर । पासा॰-प्रासाद पर । ह०-हर्म्य पर। अन्नयरे वा अन्य । तहप्प - तथा प्रकार के। अंतलिक्ख० - अन्तरिक्ष भूमि से ऊंचे स्थानों पर। नो आयाविज्ज वा० प० - आताप और परिताप न दे। से वह भिक्षु । तमायाए उस वस्त्र को लेकर । एगंतमवक्कमिज्जा - एकान्त में चला जाए वहां जाकर । अहे - अथ । ज्झामथंडिलंसि वा - जो भूमि अग्नि से दग्ध हो वहां या। अन्नयरंसि - अन्य । तहप्पगारंसि - उसी प्रकार की । थंडिलंसि वा - निर्दोष स्थंडिल भूमिका । पडिलेहिय २ - प्रतिलेखन करके । पमज्जिय २ - रजोहरणादि से प्रामार्जित करके। तओ - तत्पश्चात् । संजयामेव-यत्नापूर्वक । वत्थं - वस्त्र को । आयाविज्ज वा पया० - आताप और परिताप दे अर्थात् सुखाए। एवं खलु निश्चय ही यह । तस्स भिक्खुस्स- - उस साधु और साध्वी का । सामग्गियं सम्पूर्ण आचार है। जं-जो । सव्वट्ठेहिं-ज्ञान दर्शन चारित्र रूप अर्थों से तथा । समिए पांच समितियों से। सहिए-सहित है वह उसके पालन करने में। सया-सदा। जएज्जासि यल करे । त्तिबेमि- इस प्रकार मैं कहता हूँ । मूलार्थ - संयमशील साधु या साध्वी यदि वस्त्र को धूप में सुखाना चाहे तो वह गीली जमीन पर यावत् अण्डों और जालों से युक्त जमीन पर न सुखाए तथा न, वस्त्र को स्तंभ पर, घर के दरवाजे पर, ऊखल और स्नान पीठ (चौकी) पर सुखाए एवं इसी प्रकार के अन्य भूमि से ऊंचे स्थान पर जो कि दुर्बद्ध, दुर्निक्षिप्त, कंपनशील तथा चलाचल हों उन पर और घर की दीवार पर, नदी के तट पर, शिला और शिलाखंड पर, स्तम्भ पर, मंच पर, माल पर, तथा प्रासाद और हर्म्य - प्रासाद विशेष पर वस्त्र को न सुखाए। यदि सुखाना हो तो एकान्त स्थान में जाकर वहां अग्निदग्ध स्थंडिल यावत् इसी प्रकार के अन्य निर्दोष स्थान का प्रतिलेखन और प्रमार्जना करके यत्न पूर्वक सुखाए। यही साधु का समग्र सम्पूर्ण आचार है, इस प्रकार मैं कहता हूँ । हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जो स्थान गीला हो, बीज, हरियाली एवं अण्डों आदि से युक्त हो तो साधु ऐसे स्थान पर वस्त्र न सुखाए। और वह स्तम्भ पर घर के दरवाजे पर एवं ऐसे अन्य ऊंचे स्थानों पर भी वस्त्र न सुखाए। क्योंकि हवा के झोंकों से ऐसे स्थानों पर से वस्त्र के गिरने से या उसके हिलने वायुकायिक एवं अन्य जीवों की विराधना होने की सम्भावना है। इसलिए साधु को ऐसे ऊंचे स्थानों पर वस्त्र नहीं सुखाना चाहिए। जो अच्छी तरह बन्धा हुआ नहीं है, भली-भांति आरोपित नहीं है, निश्चल नहीं है, चलायमान है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जो अन्तरिक्ष का स्थान सम्यक्तया
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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