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________________ ३२३ पञ्चम अध्ययन, उद्देशक १ मूलार्थ-यदि कोई वस्त्र अण्डों एवं मकड़ी के जालों आदि से युक्त हो तो संयमनिष्ठ साधु-साध्वी को ऐसा अप्रासुक वस्त्र मिलने पर भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि कोई वस्त्र अण्डों और मकड़ी के जाले आदि से रहित है, परन्तु जीर्ण-शीर्ण होने के कारण अभीष्ट कार्य की सिद्धि मे असमर्थ है, या गृहस्थ ने उस वस्त्र को थोड़े काल के लिए देना स्वीकार किया है, अतः ऐसा वस्त्र जो पहरने के अयोग्य है और दाता उसे देने की पूरी अभिलाषा भी नहीं रखता तथा साधु को भी उपयुक्त प्रतीत नहीं होता हो तो साधु को ऐसे वस्त्र को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर छोड़ देना चाहिए। यदि वस्त्र अण्डादि से रहित, मजबूत और धारण करने योग्य है, दाता की देने की पूरी अभिलाषा है और साधु को भी अनुकूल प्रतीत होता है तो ऐसे वस्त्र को साधु प्रासुक जानकर ले सकता है। मेरे पास नवीन वस्त्र नहीं है, इस विचार से कोई साधु-साध्वी पुरातन वस्त्र को कुछ सुगन्धित द्रव्यों से आघर्षण-प्रघर्षण करके उसमें सुन्दरता लाने का प्रयत्न न करे। इस भावना को लेकर वे ठंडे (धोवन) या उष्ण पानी से विभूषा के लिए मलिन वस्त्र को धोने का प्रयत्न भी न करे। इसी प्रकार दुर्गन्धमय वस्त्र को भी सुगन्धयुक्त बनाने के लिए सुगन्धित द्रव्यों और जल आदि से धोने का प्रयत्न भी न करे। हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को ऐसा वस्त्र स्वीकार करना चाहिए, जो अण्डे एवं मकड़ी के जालों या अन्य जीव-जन्तुओं से युक्त हो। इसके अतिरिक्त वह वस्त्र भी साधु के लिए अग्राह्य है, जो अण्डों आदि से युक्त तो नहीं है, परन्तु जीर्ण-शीर्ण होने के कारण पहनने के अयोग्य है और गृहस्थ भी उसे कुछ दिन के लिए ही देना चाहता है और साधु को भी वह पसन्द नहीं है। अतः जो वस्त्र अंडों आदि से रहित हो, मजबूत हो, गृहस्थ की देने के लिए पूरी अभिलाषा हो और साधु के मन को भी पसन्द हो तो ऐसा वस्त्र साधु ले सकता है। ___ इसमें दूसरी बात यह बताई गई है कि यदि कोई वस्त्र मैला हो गया हो या दुर्गन्धमय हो तो साधु को विभूषा के लिए उसे पानी एवं सुगन्धित द्रव्यों से रगड़ कर सुन्दर एवं सुवासित बनाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। वृत्तिकार ने इस पाठ को जिनकल्पी मुनि से सम्बद्ध माना है। उनका कहना है कि यदि जिनकल्पी मुनि के वस्त्र मैले होने के कारण दुर्गन्धमय हो गए हों तब भी उन्हें उस वस्त्र को पानी एवं सुगन्धित द्रव्यों से धोंकर साफ एवं सुवासित नहीं करना चाहिए। . 'अधारणिजं' पद की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार का कहना है कि लक्षण हीन उपधि को धारण करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का उपघात होता है। और 'अनलं अस्थिरं अध्रुवं और १ अपि च-स भिक्षुर्यद्यपि मलोपचितत्वाद् दुर्गन्धि वस्त्रं स्यात्, तथापि तदपनयनार्थं सुगन्धिद्रव्योदकादिना नो धावनादि कुर्याद् गच्छनिर्गतः, तदन्तर्गतस्तु यतनया प्रासुकोदकादिना लोकोपघातसंसक्तिभयात् मलापनयनार्थं कुर्यादपीति। - आचाराङ्ग वृत्ति। २ चत्तारि देविया भागा, दोय भागा य माणुसा। आसुरा य दुवे भागा; माझे वत्थस्स रक्खसो॥१॥ देविएसुत्तमो लाभो, माणुसेसु य मज्झिमो। आसुरेसु अ गेलन्नं, मरणं जाण रक्खसे॥२॥ स्थापना चेयम्। किञ्च लक्खणहीणो उवही उवहणइ नाणदंसणचरितं ॥ इत्यादि,
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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