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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रस से बनाए गए एवं। कणगखइयाणि वा-सोने के तारों से निर्मित।कणगफुसियाणि वा-सोने के स्तबकों से युक्त वस्त्र। वग्याणि वा-व्याघ्र चर्म निर्मित वस्त्र अथवा। विवग्याणि वा-नाना प्रकार के व्याघ्र चर्म निष्पन्न वस्त्र अथवा। विगाणि वा-वृक चर्म से निष्पादित वस्त्र। आभरणाणि वा- प्रधान आभरणों से विभूषित वस्त्र अथवा। आभरणविचित्ताणि वा-विचित्र प्रकार के आभरणों से विभूषित और। अन्नयराणि वा-अन्य कई एक। तहप्पगाराणि-तथा प्रकार के। आईणपाउरणाणि-चर्म निष्पन्न पहरने योग्य। वत्थाणि-वस्त्र। लाभे संते-मिलने पर। नो पडिगाहिज्जा-साधु ग्रहण न करे।
मूलार्थ-संयमशील साधु अथवा साध्वी को महाधन से प्राप्त होने वाले नाना प्रकार के बहुमूल्य वस्त्रों के सम्बन्ध में जानना चाहिए और मूषकादि के चर्म से निष्पन्न, अत्यन्त सूक्ष्म, वर्ण
और सौन्दर्य से सुशोभित वस्त्र तथा देशविशेषोत्पन्न बकरी या बकरे के रोमों से बनाए गए वस्त्र एवं देशविशेषोत्पन्न इन्द्रनील वर्ण कपास से निर्मित, समान कपास से बने हुए और गौड़ देश की विशिष्ट प्रकार की कपास से बने हुए वस्त्र, पट्ट सूत्र-रेशम से, मलय सूत्र से और वल्कल तन्तुओं से बनाए गए वस्त्र तथा अंशुक और चीनांशुक, देशराज नामक देश के, अमल देश के तथा गजफल देश के और फलक तथा कोयब देश के बने हुए प्रधान वस्त्र अथवा ऊर्ण कम्बल तथा अन्य बहुमूल्य वस्त्र-कम्बल विशेष और अन्य इसी प्रकार के अन्य भी बहुमूल्य वस्त्र, प्राप्त होने पर भी विचारशील साधु उन्हें ग्रहण न करे।
संयमशील साधु या साध्वी को चर्म एवं रोम से निष्पन्न वस्त्रों के सम्बन्ध में भी परिज्ञान करना चाहिए। जैसे- सिन्धुदेश के मत्स्य के चर्म और रोमों से बने हुए, सिन्धु देश के सूक्ष्मचर्म वाले पशुओं के चर्म एवं रोमों से बने हुए तथा उस चर्म पर स्थित सूक्ष्म रोमों से बने हुए एवं कृष्ण, नील और श्वेत मृग के चर्म और रोमों से बने हुए तथा स्वर्णजल से सुशोभित, स्वर्ण के समान कांति और स्वर्ण रस के स्तबकों से विभूषित, स्वर्ण तारों से खचित और स्वर्ण चन्द्रिकाओं से स्पर्शित बहुमूल्य वस्त्र अथवा व्याघ्र या वृक के चर्म से बने हुए, सामान्य और विशेष प्रकार के आभरणों से सुशोभित अन्य प्रकार के चर्म एवं रोमों से निष्पन्न वस्त्रों को मिलने पर भी संयमशील मुनि स्वीकार न करे।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को देश या विदेश में बने हुए विशिष्ट रेशम, सूत, चर्म एवं रोमों के बहुमूल्य वस्त्रों को ग्रहण नहीं करना चाहिए। ऐसे कीमती वस्त्रों को देखकर चोरों के मन में दुर्भाव पैदा हो सकता है और साधु के मन में भी ममत्व भाव जागृत हो सकता है। चर्म एवं मुलायम रोमों के वस्त्र के लिए पशुओं की हिंसा भी होती है। अतः पूर्ण अहिंसक साधु के लिए ऐसे कीमती एवं महारम्भ से बने वस्त्र ग्राह्य नहीं हो सकते। इसलिए भगवान ने साधु के लिए ऐसे वस्त्र ग्रहण करने का निषेध किया है।
प्रस्तुत सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय एवं भारतीय सीमा के निकट के देशों में वस्त्र उद्योग काफी उन्नति पर था और उस समय मशीनरी युग से भी अधिक सुन्दर और टिकाऊ वस्त्र बनता था। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि उस युग में भारत आज से अधिक खुशहाल था। उसका व्यापारिक व्यवसाय अधिक व्यापक था। चीन एवं उसके निकटवर्ती देशों से वस्त्र का आयात एवं निर्यात होता रहता