________________
२९०
श्री आचारांग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध आदि इस प्रकार की निरवद्य पाप रहित भाषा को बोले। इसी तरह संयमशील साधु या साध्वी स्त्री को बुलाते समय उसके न सुनने पर उसे हे होली ! हे गोली ! इत्यादि जितने सम्बोधन पुरुष के प्रति ऊपर दिए गए हैं, उन नीच संबोधनों से संबोधित न करे। किन्तु उसके न सुनने पर उसे हे आयुष्मति ! हे भगिनि ! हे बहिन ! हे पूज्य ! हे भगवति ! हे श्राविके ! हे उपासिके ! हे धार्मिके और हे धर्मप्रिये ! इत्यादि पाप रहित कोमल एवं मधुर शब्दों से संबोधित करे।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में साधु को किसी भी गृहस्थ के प्रति हलके एवं अवज्ञापूर्ण शब्दों का प्रयोग करने का निषेध किया गया है। इसमें बताया गया है कि किसी पुरुष या स्त्री को पुकारने पर वह नहीं सुनता हो तो साधु उन्हें निम्न श्रेणी के सम्बोधनों से सम्बोधित न करे, उन्हें हे गोलक, मूर्ख आदि अलंकारों से विभूषित न करे। क्योंकि, इससे सुनने वाले के मन को आघात लगता है और साधु की असभ्यता एवं अशिष्टता प्रकट होती है। इसलिए साधु को ऐसी सदोष भाषा नहीं बोलनी चाहिए। यदि कभी कोई बुलाने पर नहीं सुन रहा हो तो उसे मधुर, कोमल एवं प्रियकारी सम्बोधनों से पुकारना चाहिए, उसे हे धर्मप्रिय, देवानुप्रिय, आर्य, श्रावक अथवा हे धर्मप्रिये, देवानुप्रिये, श्राविका आदि शब्दों से सम्बोधित करना चाहिए। इससे प्रत्येक प्राणी के मन में हर्ष एवं उल्लास पैदा होता है और साधु के प्रति भी उसकी श्रद्धा बढ़ती है। अतः साधु-साध्वी को सदा मधुर, निर्दोष एवं कोमल भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए।
इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-से भि० नो एवं वइजा-नभोदेवेत्ति वा गजदेवेत्ति वा विजुदेवेत्ति वा पवुट्ठदे निवुट्ठदेवेति वा पडउ वा वासं मा वा पडउ, निष्फज्जउ वा सस्सं मा वा नि विभाउ वा रयणी मा वा विभाउ, उदेउ वा सूरिए मा वा उदेउ, सो वा राया जयउवा मा जयउ, नो एयप्पगारं भासं भासिज्जापन्नवं से भिक्खू वा २ अंतलिक्खेत्ति वा गुज्झाणुचरिएत्ति वा संमुच्छिए वा निवइए वा पओए वइजा वुट्ठबलाहगेत्ति वा, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वद्वेहिं समिए सहिए सया जइजासि, त्तिबेमि॥१३५॥ ___ छाया- स भिक्षुः भिक्षुकी वा नैवं वदेत्-नभो देव इति वा, गर्जति देव इति वा विद्युद् देव इति वा प्रवृष्टो देव इति वा निवृष्टो देव इति वा, पततु वा वर्षा मा वा पततु, निष्पद्यतां वा सस्यं मा वा निष्पद्यताम्, विभातु वा रजनी मा वा विभातु, उदेतु वा सूर्यः मा वा उदेतु, स वा राजा जयतु वा मा जयतु, नो एतत्प्रकारां भाषां भाषेत्। प्रज्ञावान् स भिक्षुर्वा २ अन्तरिक्षमिति वा गुह्यानुचरितमिति वा संमूर्छितो वा निपतति वा पयोदः वदेत्-वृष्टो बलाहक इति वा) एतत् खलु तस्य भिक्षोः भिक्षुक्याः वा सामग्रयं यत् सर्वार्थैः समितः सहितः सदा यतेत, इति ब्रवीमि।