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चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक १
२८७ य-और जो भाषाअसच्चामोसा-असत्याऽमृषा अर्थात् व्यवहार भाषा है। तहप्पगारं-तथा प्रकार की।असावजंअसावद्य-पापरहित। जाव-यावत्। अभूओवघाइयं-अभूतोपघातिनी-जीवों का विनाश करने वाली नहीं है। अभिकंख-विघार कर। भासं भासिज्जा-भाषा को बोले-संभाषण करे।
मूलार्थ-संयमशील साधु और साध्वी को भाषा के विषय में यह जानना चाहिए कि भाषावर्गणा के एकत्रित हुए पुद्गल बोलने से पहले अभाषा और भाषण करते समय भाषा कहलाते हैं, और भाषण करने के पश्चात् वह बोली हुई भाषा अभाषा हो जाती है। साधु या साध्वी को भाषा के इन भेदों को भी जानना चाहिए कि-जो सत्य भाषा, असत्य भाषा, मिश्र भाषा और व्यवहार भाषा है, उन में असत्य और मिश्र भाषा का व्यवहार साधु के लिए सर्वथा वर्जित है, केवल सत्य और व्यवहार भाषा ही उनके लिए आचरणीय है। उसमें भी यदि कभी सत्य भाषा भी सावध, सक्रिय, कर्कश, कटुक, निष्ठर और कर्मों का आस्रवण करने वाली, तथा छेदन, भेदन, परिताप और उपद्रव करने वाली एवं जीवों का घात करने वाली हो तो विचारशील साधु ऐसी सत्य भाषा का भी प्रयोग न करे, किन्तु संयमशील साधु या साध्वी उसी सत्य और व्यवहार भाषा-जो कि पापरहित यावत् जीवोपघातक नहीं है-का ही विवेक पूर्वक व्यवहार करे। अर्थात् वह निर्दोष भाषा बोले।
- हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में भाषा के सम्बन्ध में दो बातें बताई गई हैं- १ भाषा की अनित्यता और २-कौन सी भाषा बोलने के योग्य या अयोग्य है। इसमें बताया गया है कि भाषा वर्गणा के पुद्गल जब तक वाणी द्वारा मुखरित नहीं होते, तब तक उन्हें भाषा नहीं कहा जाता। और बोले जाने के बाद भी उन पुद्गलों की भाषा संज्ञा नहीं रह जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि जब तक उनका वाणी के द्वारा प्रयोग होता है तब तक भाषा वर्गणा के उन पुद्गलों को भाषा कहते हैं। अतः ताल्वादि व्यापार से वाणी के रूप में व्यवहृत होने से पहले और बाद में वे पुद्गल भाषा के नाम से जाने पहचाने नहीं जाते। जैसे चाक आदि के सहयोग से घड़े के आकार को प्राप्त करने के पहले तथा घड़े के टूट जाने के बाद वह मिट्टी घड़ा नहीं कहलाती है। उसी तरह भाषा वर्गणा के पुद्गल वाणी के रूप में मुखरित होने से पहले
और बाद में भाषा नहीं कहलाते हैं। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि भाषा नित्य नहीं, अनित्य है। क्योंकि ताल्वादि के सहयोग से भाषा वर्गणा के पुद्गलों को भाषा के आकार में प्रस्फुटित किया जाता है। इस लिए वह कृतक है और जो पदार्थ कृतक होते हैं, वे अनित्य होते हैं, जैसे घट। इससे यह स्पष्ट हुआ कि भाषा भाषावर्गणा के पुद्गलों का समूह है, वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श युक्त है, कृतक है और इस कारण से अनित्य है। ___. प्रस्तुत सूत्र में दूसरी बात यह कही गई है कि साधु असत्य एवं मिश्र भाषा का बिल्कुल प्रयोग न करे। सत्य एवं व्यवहार भाषा में भी जो सावध हो, सक्रिय हो, कर्कश-कठोर हो, कड़वी हो, कर्म बन्ध कराने वाली हो, मर्म का उद्घाटन करने वाली हो तो साधु को ऐसी सत्य भाषा भी नहीं बोलनी चाहिए। इससे यह सिद्ध होता है कि साधु को सदा ऐसी सत्य एवं व्यवहार भाषा का प्रयोग करना चाहिए, जो निरवद्य हो, अनर्थकारी न हो। कठोर एवं कड़वी न हो, दूसरे के मर्म का भेदन करने वाली न हो। अतः साधु को सदा मधुर, निर्दोष एवं निष्पापकारी सत्य एवं व्यवहार भाषा का प्रयोग करना चाहिए।