SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय अध्ययन, उद्देशक ३ २७७ आमोसगा-निश्चय ही इन चोरों ने । उवगरणवडियाए - मेरे उपकरण ले लिए। सयंकरणिज्जंति कट्टु उन्होंने अपना कर्त्तव्य समझ कर मुझे । अक्कोसंति-कठोर वचन कहे। जाव - यावत् । परिट्ठवंति-मेरे उपकरण आदि फैंक दिए। एयप्पगारं-इस प्रकार का । मणं वा - मन । वायं वा अथवा वचन को । पुरओ कट्टु-आगे करके । नो विहरिज्जा- न विचरे किन्तु । अप्पुस्सुए-राग-द्वेष से रहित। जाव-यावत्। समाहीए-समाधि युक्त होकर। तओ-तदनन्तर | संजयामेव यनापूर्वक । गामा०- ग्रामानुग्राम। दूइ० - विहार करे। एयं खलु निश्चय ही यह उस साधु और साध्वी का सम्पूर्ण आचार है । सया जड़० - जो कि सर्व अर्थों से युक्त और समितियों से समित हो सदा यत्नशील रहे । त्तिबेमि- इस प्रकार मैं कहता हूँ । मूलार्थ- संयमशील साधु अथवा साध्वी को ग्रामानुग्राम विहार करते हुए यदि मार्ग में बहुत से चोर मिलें और वे कहें कि आयुष्मन् श्रमण ! ये वस्त्र, पात्र और कंबल आदि हमको दे दो या यहां पर रख दो। तो साधु वे वस्त्र, पात्रादि उनको न देवे, किन्तु भूमि पर रख दे, परन्तु उन्हें वापिस प्राप्त करने के लिए मुनि उनकी स्तुति करके, हाथ जोड़ कर या दीन वचन कह कर उन वस्त्रादि की याचना न करे अर्थात् उन्हें वापिस देने को न कहे। तथा यदि मांगना हो तो उन्हें धर्म का मार्ग समझाकर मांगे अथवा मौन रहे। वे चोर अपने चोर के कर्त्तव्य को जानकर साधु को मारें-पीटें या उसका वध करने का प्रयत्न करें और उसके वस्त्रादि को छीन लें, फाड़ डालें या फैंक दें तो भी वह भिक्षु ग्राम में जाकर लोगों से न कहे और न राजा से कहे एवं किसी अन्य गृहस्थ के पास जाकर भी यह न कहे कि आयुष्मन् गृहस्थ ! इन चोरों ने मेरे उपकरणादि को छीनने के लिए मुझे मारा है और उपकरणादि को दूर फेंक दिया है। ऐसे विचारों को साधु मन में भी न लाए और न वचन से उन्हें अभिव्यक्त करे । किन्तु राग-द्वेष से रहित हो कर समभाव से समाधि में रहकर ग्रामानुग्राम विचरे। यही उसका यथार्थ साधुत्व - साधु भाव है। इस प्रकार मैं कहता हूँ । हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में भी पहले सूत्र की तरह साधु की निर्भयता एवं सहिष्णुता पर प्रकाश डाला गया है। इसमें बताया गया है कि विहार करते समय यदि रास्ते में कोई चोर मिल जाए और वह मुनि से कहे कि तू अपने उपकरण हमें दे दे या जमीन पर रख दे। तो मुनि शान्त भाव से अपने वस्त्र पात्र आदि जमीन पर रख दे । परन्तु, वह उन्हें वापिस प्राप्त करने के लिए उन चोरों की स्तुति न करे, न उनके सामने दीन वचन ही बोले । यदि बोलना उचित समझे तो उन्हें धर्म का मार्ग दिखाकर उन्हें पथ भ्रष्ट होने से बचाए, अन्यथा मौन रहे। इसके अतिरिक्त यदि कोई चोर साधु से वस्त्र आदि प्राप्त करने के लिए उसे मारे-पीटे या उसका वध करने का प्रयत्न भी करे और उसके सभी उपकरण भी छीन ले या उन्हें तोड़-फोड़ कर दूर फैंक दे, तब भी मुनि उस पर राग-द्वेष न करता हुआ समभाव से गांव में आ जाए। गांव में आकर भी वह यह बात किसी भी गृहस्थ, अधिकारी या राजा आदि से न कहे। और न इस सम्बन्ध में किसी तरह का मानसिक चिन्तन ही करे। वह मन, वचन और काया से उस से (चोर से) किसी भी तरह का प्रतिशोध लेने का प्रयत्न न करे। इस सूत्र में साधुता के महान् उज्वल रूप को चित्रित किया गया है। अपना अपकार करने वाले व्यक्ति का कभी बुरा नहीं चाहना एवं उसे कष्ट में डालने का प्रयत्न नहीं करना, यह आत्मा की महानता प्रकट करता है। यह आत्मा के विकास की उत्कृष्ट श्रेणी है जहां पर पहुंच कर मानव अपने वधिक के
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy