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________________ २६८ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध साथ। गामा०-ग्रामानुग्राम। दू-विहार करे। से भिक्खू वा-वह साधु अथवा साध्वी। अहाराइणियं-रत्नाधिक के साथ। गामाणुगाम-एक ग्राम से दूसरे ग्राम के प्रति। दूइज्जमाणे-विहार करते हुए। अंतरा से-उसके मार्ग में यदि कोई। पाडिवहिया-पथिक (मुसाफिर ) सामने से। उवागच्छिज्जा-आजाए।णं-और। ते-वे।पाडिवहियापथिक, उस साधु को।एवं वइजा-इस प्रकार कहें। आउसंतो समणा-आयुष्मन् श्रमणो ! के तुब्भे-आप कौन हैं ? तो ।जे-जो। तत्थ-वहां पर।सव्वराइणिए-सर्वरत्नाधिक है अर्थात् जिसका दीक्षा पर्याय सब से अधिक है। से-वह। भासिज्ज वा-उत्तर दे।वागरिज वा-अथवा विशेष रूप से संभाषण करे।राइणियस्स-उस ज्येष्ठ साधु के। भासमाणस्स-भाषण करते या।वियागरेमाणस्स-विशेष रूप से उत्तर देते समय।अंतरा-उसके बीच में। नो भासं भासिज्जा-संभाषण न करे अर्थात् बीच में न बोले। तओ-तदनन्तर। संजयामेव-संयत-साधु। अहाराइणियाए-चलाधिक के साथ।गामाणुगाम-ग्रामानुग्राम। दूइजिज्जा-विहार करे। मूलार्थ- साधु अथवा साध्वी आचार्य और उपाध्याय के साथ विहार करता हुआ, आचार्य और उपाध्याय के हाथ से अपने हाथ का स्पर्श न करे, और आशातना न करता हुआ ईर्यासमिति पूर्वक उनके साथ विहार करे। उनके साथ विहार करते हुए मार्ग में यदि कोई व्यक्ति मिले और वह इस प्रकार कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! आप कौन हैं ? कहां से आये हैं ? और कहां जाएंगे? तो आचार्य या उपाध्याय जो भी साथ में हैं वे उसे सामान्य अथवा विशेष रूप से उत्तर देवें। परन्तु, साधु को उनके बीच में नहीं बोलना चाहिए। किन्तु, ईर्यासमिति का ध्यान रखता हुआ उनके साथ विहार चर्या में प्रवृत्त रहे। और यदि कभी साधु रत्नाधिक (अपने से दीक्षा में बड़े साधु) के साथ विहार करता हो तो उस रत्नाधिक के हाथ से अपने हाथ का स्पर्श न करे और यदि मार्ग में कोई पथिक सामने मिले और पूछे कि आयुष्मन् श्रमणो ! तुम कौन हो ? तो वहां पर जो सबसे बड़ा साधु हो वह उत्तर देवे उसके संभाषण में अर्थात् उत्तर देने के समय उसके बीच में कोई साधु न बोले किन्तु यत्नापूर्वक रत्नाधिक के साथ विहार में प्रवृत्त रहे। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु आचार्य, उपाध्याय एवं रत्नाधिक (अपने से दीक्षा में बड़े साधु) के साथ विहार करते समय अपने हाथ से उनके हाथ का स्पर्श करता हुआ न चले और यदि रास्ते में कोई व्यक्ति मिले और वह पूछे कि आप कौन हैं ? कहां से आ रहे हैं ? और कहां जाएंगे? आदि प्रश्नों का उत्तर साथ में चलने वाले आचार्य, उपाध्याय या बड़े साधु दें, परन्तु छोटे साधु को न तो उत्तर देने का प्रयत्न करना चाहिए और न बीच में ही बोलना चाहिए। क्योंकि आचार्य आदि के हाथ एवं अन्य अङ्गोपांग का अपने हाथ आदि से स्पर्श करने से तथा वे किसी के प्रश्नों का उत्तर दे रहे हों उस समय उनके बीच में बोलने से उनकी अशातना होगी और वह साधु भी असभ्य सा प्रतीत होगा। अतः उनकी विनय एवं शिष्टता का ध्यान रखते हुए साधु को विवेक पूर्वक चलना चाहिए। यदि कभी आचार्य, उपाध्याय या बड़े साधु छोटे साधु को प्रश्नों का उत्तर देने के लिए कहें तो वह उस व्यक्ति को उत्तर दे सकता है और इसी तरह यदि आचार्य आदि के शरीर में कोई वेदना हो गई हो या चलते समय उन्हें उसके हाथ के सहारे की आवश्यकता हो तो वह उस स्थिति में उनके हाथ आदि का स्पर्श भी कर सकता है। अस्तु, यहां जो निषेध किया गया है, वह बिना किसी कारण से एवं उनकी
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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