SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४४ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रधान रखकर। नो विहरिज्जा-विहरण न करे किन्तु। अप्पुस्सुए-शरीर तथा उपकरणादि पर ममत्व न रखता हुआ, और।अबहिल्लेसे-जिस की संयम से बाहर लेश्या नहीं है तथा। एगंतगएण-एकान्त गत अर्थात् राग-द्वेष से रहित होकर।अप्पाणं-आत्मा को-आत्मगत ममत्व भाव को।विउसेज्जा-छोड़कर और।समाहीए-ज्ञानदर्शन तथा चारित्र में समाहित होकर रहे। तओ-तदनन्तर। संजयामेव-संयत साधु। नावासंतारिमे-नौका से तरने योग्य। उदए-जल में।आहारियं-जिस प्रकार अनन्त तीर्थंकरों ने ईर्या का वर्णन किया है उसी प्रकार। रीइज्जाचले।एवं खलु-निश्चय ही यह। सया-सदा ही। जइजासि-यतनाशील बने।त्तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। मूलार्थ-साधु या साध्वी नौका पर चढ़ते हुए नौका के आगे, पीछे और मध्य में न बैठे। और नौका के बाजु को पकड़कर या अंगुली द्वारा उद्देश्य (स्पर्श) करके तथा अंगुली ऊंची करके जल को न देखे। यदि नाविक साधु के प्रति कहे कि हे आयुष्मन् श्रमण ! तू इस नौका को खींच या अमुक वस्तु को नौका में रखकर और रजू को पकड़कर नौका को अच्छी तरह से बान्ध दे। या रज्जू के द्वारा जोर से कस दे। इस प्रकार के नाविक के वचनों को साधु स्वीकार न करे किन्तु मौन वृत्ति को धारण कर अवस्थित रहे। यदि नाविक फिर कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! यदि तू इस प्रकार नहीं कर सकता तो मुझे रज्जू लाकर दे। हम स्वयं नौका को दृढ़ बन्धनों से बान्ध लेंगे और उसे चलाएंगे फिर भी साधु चुप रहे। यदि नाविक कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! तू इस नौका को चप्पू से, पीठ से, बांस से, बलक और अबलुक से आगे कर दे। नाविक के इस वचन को भी स्वीकार न करता हुआ साधु मौन रहे। फिर नाविक बोले कि आयुष्मन् श्रमण ! तू नाव में भरे हुए जल को हाथ से, पांव से, भाजन से, पात्र से और उत्सिंचन से बाहर निकाल दे। नाविक के इस कथन को भी अस्वीकार करता हुआ साधु मौन रहे। यदि फिर नाविक कहे कि-आयुष्मन् श्रमण ! तू नावा के इस छिद्र को हाथ से, पैर से, भुजाओं से, जंघा से, उदर से, सिर से और शरीर से, नौका से जल निकालने वाले उपकरणों से, वस्त्र से, मिट्टी से, कुश पत्र और कुबिंद से रोक दे- बन्द कर दे। साधु नाविक के उक्त कथन को भी अस्वीकार कर मौन धारण करके बैठा रहे। साधु या साध्वी नौका में छिद्र के द्वारा जल भरता हुआ देखकर एवं नौका को भरती हुई देखकर, नाविक के पास जाकर ऐसे न कहे कि हे आयष्मन गहपते ! तम्हारी यह नौका छिद्र द्वारा जल से भर रही है और छिद्र से जल आ रहा है। इस प्रकार के मन और वचन को उस ओर न लगाता हुआ विचरे। वह शरीर एवं उपकरणादि पर मूर्छा न करता हुआ, लेश्या को संयम में रखे तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र में समाहित होकर आत्मा को राग और द्वेष से रहित करने का प्रयत्न करे। और नौका के द्वारा तैरने योग्य जल को पार करने के बाद जिस प्रकार तीर्थंकरों ने जल के विषय में ईर्या समिति का वर्णन किया है- उसी प्रकार उसका पालन करे। यही साधु का समग्र आचार है अर्थात् इसी में उसका साधु भाव है। इस प्रकार मैं कहता हूँ।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy