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________________ द्वितीय अध्ययन, उद्देशक३ २०७ पदार्थ-से-वह। भिक्खू वा-साधु अथवा साध्वी। से जं.-फिर जो उपाश्रय को जाने जैसे कि। इह खलु-निश्चय ही इस संसार में। गाहावई वा-गृहपति। जाव-यावत्। कम्मकरीओ वा-गृहपति की दासियें। अन्नमन्नस्स-परस्पर एक-दूसरे के। गायं-शरीर को। तिल्लेण वा-तेल से अथवा। नव-नवनीतमक्खन से। घ०-घी से। वसाए वा-वसा से। अब्भंगेति वा-मर्दन करते या करती हैं। मक्खेंति वा-तेल आदि लगाती हैं तो। नो पण्णस्स-प्रज्ञावान साधु को वहां पर स्वाध्याय आदि नहीं करना चाहिए। जाव-यावत्। तहप्प०-तथाप्रकार के। उप०-उपाश्रय में। नो ठा०-स्थानादि नहीं करना चाहिए। पदार्थ-से-वह। भिक्खू वा-साधु अथवा साध्वी। से जं पुण०-वह जो फिर उपाश्रय को जाने। इह खलु-निश्चय ही इस संसार में। गाहावई वा-गृहपति। जाव-यावत्। कम्मकरीओ वा-उसकी दासियें। अन्नमन्नस्स-परस्पर एक-दूसरे के। गायं-शरीर को। सिणाणेण वा-पानी से। क-कर्क-सुगन्धित द्रव्य से। लु-लोध्र से। चु०-चूर्ण से-प०-पद्म से-पद्म द्रव्य से। आघंसंति वा-साफ करती हैं। पघंसंति वा-प्रघर्षित करती हैं। उव्वलंति वा-तेल आदि से मर्दन करती हैं। उव्वदिति वा- उद्वर्तन करती हैं-उबटन करती हैं। नो पन्नस्स-अतः प्रज्ञावान साधु को इस प्रकार के उपाश्रय में स्वाध्याय और ध्यानादि नहीं करना चाहिए। पदार्थ-से-वह। भिक्खू वा-साधु अथवा साध्वी। से जं पुण-फिर वह। उवस्सयं-उपाश्रय को जाने। इह खलु-निश्चय ही इस संसार में। गाहावई वा-गृहपति। जाव-यावत्। कम्मकरीओ वा-गृहपति की दासियें। अण्णमण्णस्स-परस्पर एक-दूसरे के।गायं-शरीर को। सीओदग०-शीतल जल से। उसिणो०-उष्ण जल से। उच्छो०-अभिसिक्त करती हैं, छींटे देती हैं। पहोयंति-धोती हैं। सिंचंति-जल से सिंचन करती हैं। सिणायंति वा-स्नान करती हैं तो। नो पन्नस्स जाव नो ठाणं०-प्रज्ञावान् साधु को इस प्रकार के उपाश्रय में स्थानादि नहीं करना चाहिए। मूलार्थ साधु और साध्वी गृहस्थ के उपाश्रय को जाने, जैसे कि जिस उपाश्रय-बसती में, गृहपति और उसकी स्त्री यावत् दास-दासिएं परस्पर एक-दूसरे को आक्रोशती- कोसती हैं, मारती और पीटती यावत् उपद्रव करती हैं। तथा परस्पर एक-दूसरे के शरीर को तेल से, मक्खन से, घी से और वसा से मर्दन करती हैं और एक-दूसरे के शरीर को पानी से, कर्क से, लोध्र से, चूर्ण से और पद्मद्रव्य से साफ करती हैं मैल उतारती हैं तथा उबटन करती हैं और एक-दूसरे के शरीर को शीतल जल से, उष्ण जल से छींटे देती हैं, धोती हैं, जल से सींचन करती हैं और स्नान कराती हैं, प्रज्ञावान् साधु को इस प्रकार के उपाश्रय में न ठहरना चाहिए और न कायोत्सर्गादि क्रियाएं करनी चाहिएं। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत चार सूत्रों में यह बताया गया है कि जिस वस्ती में स्त्रियां परस्पर लड़ती झगड़ती हों, मार-पीट करती हों, या एक-दूसरी के शरीर पर तेल आदि स्निग्ध पदार्थों की मालिश करती हों, मैल उतारती हों, या परस्पर पानी उछालती हों, छींटे मारती हों या इसी तरह की अन्य क्रीड़ाएं करती हों तो मुनि को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए। ये चारों सूत्र स्त्रियों से सम्बन्धित हैं, अतः ऐसे स्थानों में साधुओं को ठहरने के लिए निषेध किया गया है, क्योंकि, इससे उनके मन में विकार जागृत हो
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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