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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध पदार्थ- से-वह भिक्षु। आगंतारेसु वा धर्मशाला आदि में प्रवेश करके और । अणुवी - विचार करके - यह उपाश्रय कैसा है और इसका स्वामी कौन है, फिर । उवस्सयं - उपाश्रय की। जाइज्जा याचना करे, जैसे कि। जे-जो। तत्थ-वहां पर। ईसरे उस उपाश्रय का स्वामी है और । जे - जो । तत्थ - वहां पर । समहिट्ठाएजिनके अधिकार में दिया हुआ है। ते-उनको। अणुन्नविज्जा - अनुज्ञापन करे अर्थात् उनसे आज्ञा मांगे और कहे। कामं खलु आउसो - हे आयुष्मन् ! निश्चय ही आपकी इच्छानुसार । अहालंद - जितना काल आप कहें। अहापरिन्नायं - जितना भाग इस उपाश्रय का आप देना चाहें उतने ही भाग में हम । वसिस्सामो रहेंगे, तब मुनि के प्रति गृहस्थ बोले । जाव-यावत् । आउसंतो- हे पूज्य ! आप कितना समय यहां ठहरेंगे ? तब मुनि ने उसके प्रति कहा कि हे आयुष्मन् - गृहस्थ ! हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में तो बिना कारण एक मास तक रह सकते हैं, और वर्षा ऋतु में चार मास तक । जाव-यावत् । आउसंतस्स - आयुष्मन् के। उवस्सए - उपाश्रय में रहेंगे। तब गृहस्थ ने कहा कि आयुष्मन् श्रमण ! एतावत् इतने समय के लिए यह उपाश्रय और इसका इतना भाग आप को नहीं दिया जा सकता । तब मुनि गृहस्थ के प्रति कहे कि आयुष्मन् गृहस्थ ! जितने समय के लिए आपकी आज्ञा हो तथा जितना भाग इस उपाश्रय का आप देना चाहें हम उस में आपकी आज्ञा से उतना समय रहकर फिर विहार कर देंगे। तब उस गृहस्थ ने मुनि के प्रति कहा कि आप कितने साधु हैं ? इसके उत्तर में मुनि बोला कि हे सद्गृहस्थ ! हमारा साधु वर्ग समुद्र के समान है जिसका कोई प्रमाण नहीं। कुछ साधु अपने पठन-पाठन आदि कार्य के लिए आते हैं, और अपना कार्य करके चले जाते हैं अतः। जाव-यावन्मात्र । साहम्मियाई - साधर्मी साधु आवेंगे। ताव- जितने काल तक आप कहेंगे उतने काल पर्यन्त। उवस्सयं-उपाश्रय को । गिहिस्सामो-ग्रहण करेंगे। तेण परं तत्पश्चात् । विहरिस्सामो- विहार जावेंगे अर्थात् आपकी आज्ञानुसार रहकर फिर चलें जावेंगे। मूलार्थ - वह साधु धर्मशालाओं आदि में प्रवेश करने के अनन्तर यह विचार करे कि यह उपाश्रय किसका है और यह किसके अधिकार में है ? तदनन्तर उपाश्रय की याचना करे । [ इस सूत्र का विषय कुछ क्लिष्ट है इसलिए प्रश्नोत्तर के रूप में लिखा जाता है ] मुनि - आयुष्मन् गृहस्थ ! यदि आप आज्ञा दें तो आपकी इच्छानुकूल जितने समय पर्यन्त और जितने भूमि भाग में आप रहने की आज्ञा देंगे, उतने ही समय औरं उतने ही भूमि भाग में हम रहेंगे। २०२ गृहस्थ- आयुष्मन् मुनिराज ! आप कितने समय तक रहेंगे ? मुनि - आयुष्मन् सद्गृहस्थ ! किसी कारण विशेष के बिना हम ग्रीष्म और हेमन्त ऋतु में एक मास और वर्षा ऋतु में चार मास पर्यन्त रह सकते हैं। गृहस्थ - इतने समय के लिए आप को यह उपाश्रय नहीं दिया जा सकता। मुनि - यदि इतने समय तक की आज्ञा नहीं दे सकते तो कोई बात नहीं आप जितने समय के लिए कहेंगे उतने समय तक यहां ठहर कर फिर हम विहार कर जाएंगे। गृहस्थ- आप कितने साधु हैं ? मुनि - साधु तो समुद्र के समान अनगिनत हैं। क्योंकि अपने पठन-पाठन आदि कार्य के लिए कई मुनि आते हैं, और अपना कार्य करके चले जाते हैं। किन्तु जो यहां पर आवेंगे वे सब आपकी आज्ञानुसार रह कर विहार कर जाएंगे। इस प्रकार मुनि को गृहस्थ के पास उपाश्रय की
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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