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________________ २०१ द्वितीय अध्ययन, उद्देशक ३ हिलते हैं और कुछ अधिक चंचल हैं उनको आघात पहुंचने का डर है, क्योंकि रात्रि में और विकाल में अन्दर से बाहर और बाहर से अन्दर निकलता या प्रवेश करता हुआ साधु यदि फिसल पड़े या गिर पड़े तो वे उपकरण टूट जाएंगे, अथवा उस भिक्षु के फिसलने या गिर पड़ने से उसके हाथपैर आदि के टूटने का भी भय है और उसके गिरने से वहां पर रहे हुए अन्य क्षुद्र जीवों के विनाश का भी भय है, इसलिए तीर्थंकरादि आप्त पुरुषों ने पहले ही साधुओं को यह उपदेश दिया है कि इस प्रकार के उपाश्रय में पहले हाथ से टटोल कर फिर पैर रखना चाहिए और यत्नापूर्वक बाहर से भीतर एवं भीतर से बाहर गमनागमन करना चाहिए। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि अपनी आत्मा एवं संयम की विराधना से बचने के लिए साधु को रात्रि एवं विकाल के समय आवश्यक कार्य से उपाश्रय के बाहर जाते एवं पुनः उपाश्रय में प्रविष्ट होते समय विवेक एवं यत्नापूर्वक गमनागमन करना चाहिए। यदि किसी उपाश्रय के द्वार छोटे हों या उपाश्रय छोटा हो और उसमें कुछ गृहस्थ रहते भी हों या अन्य मत के भिक्षु ठहरे हुए हों तो साधु को रात के समय बाहर आते-जाते समय पहले हाथ से टटोल कर फिर पैर रखना चाहिए। क्योंकि ऐसा करने से उसके कहीं चोट नहीं लगेगी और न किसी से टक्कर खाकर गिरने या फिसलने का भय रहेगा। यदि वह अपने हाथ से टटोल कर सावधानी से नहीं चलेगा तो संभव है दरवाजा छोटा होने के कारण उसके सिर आदि में चोट लग जाए या वह फिसल पड़े या किसी भिक्षु की उपधि पर पैर पड़ जाने से वह टूट जाए और इससे उसके मन को संक्लेश हो और परस्पर कलह भी हो जाए। इस तरह समस्त दोषों से बचने के लिए साधु को विवेक एवं यत्नापूर्वक गमनागमन करना चाहिए। - प्रस्तुत सूत्र से उस युग के साधु समाज में प्रचलित उपधियों का एवं उस युग की विभिन्न साधना पद्धतियों का परिचय मिलता है और साथ में गृहस्थ की उदारता का भी परिचय मिलता है कि वह बिना किसी भेद भाव से सभी संप्रदाय के भिक्षुओं को विश्राम करने के लिए मकान दे देता था। उसके द्वार सभी के लिए खुले थे। साधु को स्थान की याचना किस तरह करनी चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते - मूलम्- से आगंतारेसुवा अणुवीइ उवस्सयं जाइजा,जे तत्थ ईसरे, जे तत्थ समहिट्ठाए ते उवस्सयं अणुन्नविज्जा कामं खलु आउसो ! अहालंदं अहापरिन्नायं वसिस्सामो जाव आउसंतो ! जाव आउसंतस्स उवस्सए जाव साहम्मियाइं ततो उवस्सयं गिहिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो॥८९॥ छाया- स आगन्तारेषु वा अनुविचिन्त्य उपाश्रयं याचेत्, यस्तत्र ईश्वरः, यस्तत्र समधिष्ठाता तानुपाश्रयं अनुज्ञापयेत् कामं खलु आयुष्मन् ! यथालंदं यथापरिज्ञातं वत्स्यामः यावद् आयुष्मन्तः ! यावत् आयुष्मत उपाश्रयं यावत् साधर्मिकाः ततः उपाश्रयं ग्रहीष्यामः, ततः परं विहरिष्यामः।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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