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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक २
१८३ रूप से ठहरने की सुविधा मिलती थी।
, प्रस्तुत सूत्र में 'साहम्मिएहिं' पद का केवल साधर्मिक साधुओं के लिए नहीं, अपितु सभी साधुओं के लिए सामान्य रूप से प्रयोग किया गया है। अतः प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ अन्य मत के साधु संन्यासी करना चाहिए। वृत्तिकार ने भी यही अर्थ किया है।
साधु को अपनी विहार मर्यादा में काल का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए, इस सम्बन्ध में सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- से आगंतारेसुवा ४ जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवाइणित्ता तत्थेव भुज्जो २ संवसंति अयमाउसो! कालाइक्कंतकिरियावि भवति ॥७८॥
... छाया- स आगन्तागारेषु वा ४ भयत्रातारः ऋतुबद्धं वा वर्षावासं वा कल्पमुपनीय तत्रैव भूयः २ संवसन्ति अयमायुष्मन् ! कालातिक्रान्तक्रियापि भवति।
पदार्थ- से-वह-भिक्षु। आगंतारेसु वा ४-धर्मशाला आदि में। जे भयंतारो जो पूज्य भगवान। उडुबद्धियं-शीतोष्णकाल में मासकल्पादि तथा। वासावासियं वा-वर्षाकाल-चातुर्मास। कप्पं-कल्प की मर्यादा को। उवाइणित्ता-बिताकर। तत्थेव-वहीं पर। भुजो २-पुनः पुनः। संवसंति-बिना कारण रहते हैं। अयमाउसो-हे आयुष्मन् शिष्य! यह। कालाइक्कंतकिरियावि-कालातिक्रान्त क्रिया। भवति-होती है।
मूलार्थ-धर्मशाला आदि स्थानों में जो मुनिराज शीतोष्ण काल में मास कल्प एवं वर्षाकाल में चातुर्मासकल्प को बिताकर बिना कारण पुनः वहीं पर निवास करते हैं तो वे काल का अतिक्रमण करते हैं।
हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि जिस स्थान में साधु ने मास कल्प या वर्षावासकल्प किया हो उसे उसके बाद उस स्थान में बिना कारण के नहीं ठहरना चाहिए। यदि बिना किसी विशेष कारण के वे उस स्थान में ठहरते हैं तो कालातिक्रमण दोष का सेवन करते हैं। क्योंकि मर्यादा से अधिक समय तक एक स्थान में रहने से गृहस्थों के साथ अधिक घनिष्ठ परिचय हो जाता है
और इससे उनके साथ राग-भाव हो जाता है और इस कारण आहार में भी उद्गमादि दोषों का लगना सम्भव है। और दूसरी बात यह है कि एक ही स्थान पर रुक जाने से अन्य गांवों में धर्म प्रचार भी नहीं होता है। अतः संयम शुद्धि एवं शासनोन्नति की दृष्टि से साधु को मर्यादित काल से अधिक नहीं ठहरना चाहिए। क्योंकि प्रत्येक क्रिया काल-मर्यादा में ही होनी चाहिए। इससे जीवन की व्यवस्था बनी रहती है और तप-संयम भी निर्मल रहता है। आगम में एक प्रश्न किया गया है कि काल की प्रतिलेखना करने से अर्थात् कालमर्यादा का पालन करने से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ? इसका उत्तर देते हुए श्रमण भगवान महावीर ने फरमाया है कि काल मर्यादा का सम्यक्तया परिपालन करने वाला व्यक्ति ज्ञानावरणीय कर्मों की निर्जरा करता है । इसका कारण यह है कि प्रत्येक क्रिया समय पर करने के कारण
कालपडिलेहणयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? कालपडिलेहणाए णं नाणावरणिज्ज कम्मखवेइ।
- उत्तराध्ययन सूत्र, २९, १५ ।