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________________ १८२ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध का कष्ट पहुंचाए एकान्त स्थान में छोड़ देवे। इस तरह प्रस्तुत पाठ विधि और निषेध दोनों का परिबोधक है। जिस स्थान में साधु को ठहरना हो, कायोत्सर्ग आदि क्रियाएं करनी हों उस स्थान में अंडा आदि नहीं होना चाहिए। साधु को किस स्थिति में किस तरह के मकान में नहीं ठहरना चाहिए, इस सम्बन्ध में सूत्रकार कहते हैं मूलम्- से आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अभिक्खणं साहम्मिएहिं उवयमाणेहिं नो उवइज्जा ॥७७॥ छाया- स आगन्तागारेषु, वा आरामागारेषु वा गृहपतिकुलेषु वा पर्यावसथेषु वा अभीक्ष्णं साधर्मिकैः अवपतद्भिः न अवपतेत्। पदार्थ- आगंतारेसु-गांव के बाहर स्थित धर्मशाला आदि जिसमें यात्री ठहरते हैं। आरामागारेसुबगीचे आदि में लोगों की विश्रान्ति के लिए बने हुए मकान में। गाहावइकुलेसु वा-गृहपति के कुल में। परियावसहेसु वा-तापस आदि के मठ में, यदि। साहम्मिएहिं-अन्य मत के साधु-संन्यासी। अभिक्खणंबार-बार आते हों, उवयमाणेहिं-और ठहरते हों तो। से-वह निर्ग्रन्थ जैन मुनि, ऐसे स्थानों पर। नो उवइज्जामासकल्प आदि न करे। मूलार्थ-धर्मशाला, उद्यान में बने हुए विश्रामगृह, गृहपति कुल एवं तापस आदि के मठों में जहां अन्य मत के साधु बार-बार आते-जाते हों, वहां जैन मुनि को मासकल्प नहीं करना चाहिए। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में धर्मशाला, विश्रामगृह, गृहपति के अतिथ्यालय एवं तापस आदि के मठों में यदि अन्य मत के साधुओं का अधिक आवागमन रहता हो तो साधु को ऐसे स्थानों में मासकल्प नहीं करना चाहिए। इसका कारण यह है कि उनके अत्यधिक आवागमन से वहां का वातावरण शान्त नहीं रह पाएगा और उस कोलाहलमय वातावरण में साधु एकाग्र एवं शान्त मन से स्वाध्याय, ध्यान एवं चिन्तन-मनन नहीं कर सकेगा। दूसरी बात यह है कि जैन मुनि की वृत्ति उनसे कठिन होने के कारण उनकी अधिक प्रतिष्ठा को देखकर वे उससे ईर्ष्या रखने लगेंगे और उसे तंग करने का भी प्रयत्न करेंगे और इस कारण संक्लेश का वातावरण भी बन सकता है और उनके साथ अधिक परिचय होने से श्रद्धा में विपरीतता आने की संभावना रहती है। इसलिए साधु को अन्य मत के भिक्षुओं के अधिक आवागमन वाले स्थान में मासकल्प या चतुर्मास कल्प नहीं करना चाहिए। ___ इससे स्पष्ट होता है कि साधु को ऐसे स्थानों में परिस्थिति वश एक-दो दिन ठहरना पड़े तो उसका निषेध नहीं है। प्रस्तुत पाठ से यह भी ज्ञात होता है कि उस युग में यात्रियों के ठहरने की सुविधा के लिए गांव के बाहर धर्मशालाएं, विश्रामगृह एवं मठ आदि होते थे और गांव या शहर में गृहपतियों के अतिथ्यालय बने होते थे और उनमें बिना किसी जाति-पाति एवं सम्प्रदाय या पंथ भेद के सबको समान १. दशवकालिक सूत्र; ४।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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