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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक २
१७९ ठहरेगा तो गृहस्थ अपने लिए भोजन बनाने तथा सर्दी निवारणार्थ ताप के लिए लकड़ी आदि की व्यवस्था कर चुकने के बाद अतिथि रूप में ठहरे हुए साधु के लिए भोजन बनाने की सामग्री एकत्रित करेगा और उसके शीत को दूर करने के लिए लकड़ियां खरीदेगा, उसका छेदन-भेदन कराएगा। उसे ऐसा करते हुए देखकर साधु के भावों में भी परिवर्तन आ सकता है और वह उस भोजन एवं आताप में आसक्त होकर संयम पथ से गिर भी सकता है। क्योंकि आत्मा का विकास एवं पतन भावों पर ही अधारित है। भावों के बनते एवं बिगड़ते विशेष देर नहीं लगती है। जैसे अपस्मार (मृगी) का रोगी पानी को देखते ही मूर्छित होकर गिर पड़ता है। इसी तरह आत्मा में सत्ता रूप से स्थित औदयिक भाव बाहर का निमित्त पाकर जागृत हो उठते हैं और आत्मा को सन्मार्ग के शिखर से पतन के गर्त में गिरा देते हैं। इसलिए साधु को सदा सावधान रहना चाहिए और उसे सदा ऐसे निमित्तों से बचकर रहना चाहिए जिससे उसकी आत्मा पतन की ओर गतिशील हो। इसीलिए आगम में यह आदेश दिया गया है कि साधु को गृहस्थ के साथ नहीं ठहरना चाहिए।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘गाहावइस्स' पद में तृतीया विभक्ति के अर्थ में षष्ठी-विभक्ति का प्रयोग किया गया है और 'उवस्सए' अर्थात् उपाश्रय शब्द का प्रयोग स्थानक के अर्थ में नहीं, प्रत्युत मकान मात्र के अर्थ में हुआ है। और जब हम प्रस्तुत पाठ का गहराई से अध्ययन करते हैं तो उपाश्रय का अर्थ गृहस्थों से युक्त एवं भोजनशाला के निकटवर्ती स्थान विशेष पर ही स्पष्ट होता है। इसे अन्तरगृह भी कहते हैं और कल्पसूत्र में साधु-साध्वी को अन्तरगृह में ठहरने एवं मल-मूत्र के त्याग करने आदि क्रियाओं का निषेध किया गया है और दशवैकालिक सूत्र में भी अन्तरगृह में निवास करने एवं पर्यंक आदि पर बैठने का निषेध किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि संयम की सुरक्षा के लिए मुनि को ऐसे मकान में नहीं ठहरना चाहिए जिसमें गृहस्थ अपने परिवार सहित निवसित हो।
- इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्- से भिक्खू वा० उच्चारपासवणेण उव्वाहिज्जमाणे, राओ वा वियाले वा गाहावइकुलस्स दुवारबाहं अवंगुणिज्जा, तेणे य तस्संधिचारी अणुपविसिज्जा, तस्स भिक्खुस्स नो कप्पइ, एवं वइत्तए-अयं तेणो पविसइ वा नो वा पविसइ, उवल्लियइ वा नो वा०, आवयइ वा नो वा०, वयइ वा नो वा०, तेण हडं अन्नेण हडं, तस्स हडं अन्नस्स हडं, अयं तेणे, अयं उवचरए अयं हंता, अयं इत्थमकासी, तं तवस्सिं भिक्खं अतेणं तेणंति संकइ। अह भिक्खूणं पु० जाव नो ठा० ॥७५॥
छाया- स भिक्षुर्वा उच्चारप्रस्रवणेन उद्बाध्यमानः रात्रौ वा विकाले वा गृहपतिकुलस्य द्वारभागम् अपवृणुयात् स्तेनश्च तत्संधिचारी अनुप्रविशेत्, तस्य भिक्षोः नो
१ सिज्जायरपिंडं च आसंदीपलियंकए। - गिहंतर निसिज्जा य, गायस्सुव्वट्टणाणि य।
- दशवकालिक सूत्र, ३,५।