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________________ १७१ द्वितीय अध्ययन, उद्देशक १ एक लड़ी का हार। मुक्तावली वा-मोतियों की माला-हार।कणगावली वा-सोने का हार अथवा। रयणावली वा-रत्नों की माला का हार तथा। तरुणियं वा-जवान स्त्री को अथवा। कुमारि-कुमारी कन्या को।अलंकियविभूसियं-अलंकृत अथवा विभूषित स्त्री को। पेहाए-देखकर। अह-अथ। भिक्खू-भिक्षु के। उच्चावयं-मन में ऊंचे-नीचे विचार आ सकते हैं। एरिसिया वा-वह सोचने लगे कि मेरी स्त्री भी इसके समान थी, अथवा। सावह स्त्री।णो एरिसिया-ऐसी नहीं थी, तथा इसके समान ही मेरे घर में आभूषणादि थे अथवा नहीं थे। इय वा णं बूया-वह इस प्रकार के वचन बोलने लगे। इय वा णं मणं साइज्जा-मन में राग-द्वेष करने लगे। अह-अतः। भिक्खूणं-भिक्षुओं को।पुव्वोवइट्ठा ४-तीर्थंकरादि ने पहले ही यह उपदेश दिया है कि।जं-जो। तहप्पगारेतथाप्रकार के। उवस्सए-उपाश्रय में। णो ठाणं वा३चेइज्जा-न ठहरे। मूलार्थ-गृहस्थ के साथ ठहरना भिक्षु के लिए कर्म बन्धन का कारण है। जो भिक्षु गृहस्थ के साथ बसता है उसमें निम्नलिखित कारणों से राग-द्वेष के भावों का उत्पन्न होना संभव है। यथा-गृहपति के कुण्डल, या धागे में पिरोया हुआ आभरण विशेष, मणि, मुक्ता-मोती, चांदी, सोना या स्वर्ण के कड़े, बाजूबन्द-भुजाओं में धारण करने के आभूषण, तीन लड़ी का हार, फूल माला, अठारह लड़ी का हार, नौ लड़ी का हार, एकावली हार, सोने का हार, मोतियों और रत्नों के हार तथा वस्त्रालंकारादि से अलंकृत और विभूषित युवती स्त्री और कुमारी कन्या को देखकर भिक्षु के मन में ये संकल्प-विकल्प उत्पन्न हो सकते हैं, कि ये पूर्वोक्त आभूषणादि मेरे घर में भी थे अथवा मेरे घर में ये आभूषण नहीं थे। एवं मेरी स्त्री या कन्या भी इसी प्रकार की थी अथवा नहीं थी। इन्हें देखकर वह ऐसे वचन बोलेगा या मन में उन का अनुमोदन करेगा। इसलिए तीर्थंकरों ने पहले ही भिक्षुओं को यह उपदेश दिया है कि वे इस प्रकार के उपाश्रय में न ठहरें। हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में गृहस्थ के साथ ठहरने का निषेध करते हुए बताया गया है कि गृहस्थ के यहां विभिन्न तरह के वस्त्राभूषण एवं वस्त्राभूषणों से सुसज्जित नवयुवतियों एवं उसकी कुमारी कन्याओं को देखकर उसके मन में अपने पूर्व जीवन की स्मृति जाग सकती है। वह यह सोच सकता है कि मेरे घर में भी ऐसा ही या इससे भी अधिक वैभव था या मेरे घर में इतनी प्रचुर भोग सामग्री नहीं थी, मैंने अपने जीवन में इतने भोग नहीं भोगे। इस तरह गृहस्थ के वैभव संपन्न जीवन को देखकर उसका मन भोगों के चिन्तन में लग सकता है। अतः इसे कर्म बन्ध का कारण जानकर साधु को ऐसे स्थानों में नहीं ठहरना चाहिए। ___ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्- आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावइणीओ वा गाहावइधूयाओ वा गा० सुण्हाओ वा गा० धाईओ वा गा. दासीओ वा गा• कम्मकरीओ वा तासिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ--जे इमे भवंति समणा भगवंतो जाव उवरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसिंकप्पइ मेहुणधम्म परियारणाए आउट्टित्तए, जा य खलु एएहिं सद्धिं मेहुणधम्म
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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