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________________ १६८ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध खलु गाहावई वा जाव कम्मकरी वा अन्नमनं अक्कोसंति वा पचंति वारंभंति वा उद्दविंति वा, अह भिक्खूणं उच्चावयं मणं नियंछिज्जा, एए खलु अन्नमन्नं अक्कोसंतु वा मा वा अक्कोसंतु जाव मा वा उद्दविंत्तु , अह भिक्खूणं पुव्वो० जं तहप्पगारे सा० नो ठाणं वा ३ चेइज्जा॥६८॥ छाया- आदानमेतत् भिक्षोः सागारिके उपाश्रये संवसतः इह खलु गृहपतिः वा यावत् कर्मकरी वा अन्योऽन्यं आक्रोशयन्ति वा पचन्ति वा रुधन्ति वा उपद्रावयन्ति वा अथ भिक्षुः उच्चावचं मनः कुर्यात् , एते खलु अन्योऽन्यं आक्रोशन्तु मा वा आक्रोशन्तु यावत् उपद्रावयन्तु , अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टं यत् तथाप्रकारे सागारिके उपाश्रये नो स्थानं वा ३ चेतयेत्। ___ पदार्थः- सागारिए उवस्सए-गृहस्थ से युक्त उपाश्रय में।संवसमाणस्स-निवास करना।भिक्खुस्ससाधु के लिए।आयाणमेयं-कर्म बन्ध का कारण है, क्योंकि। इह खलु-इस उपाश्रय में। गाहावई वा-गृहपति। जाव-यावत्। कम्मकरी वा-उसकी दासी आदि। अन्नमन्न-परस्पर।अक्कोसंति वा-एक-दूसरे को कोसती हैं। पचंति वा-खाना पकाती हैं। संभंति वा-रोकती हैं। उद्दविंति वा-उपद्रव करती हैं। अह-अतः उन्हें ऐसा करते देखकर।भिक्खूणं-भिक्षु के। उच्चावयं मणं नियंच्छिज्जा-मन में ऊंचे-नीचे परिणाम आ सकते हैं, वह सोच सकता है कि। एए खलु-यह सब निश्चय ही।अन्नमन्नं-परस्पर।अक्कोसंतु वा-आक्रोश करें।मा वा अक्कोसंतु वा-अक्रोश न करें। जाव-यावत्। मा वा उद्दविंतु-उपद्रव न करे।अह भिक्खूणं-भिक्षुओं को। पुव्वोवइट्ठा-तीर्थंकरों ने पहले ही उपदेश दिया है कि। जं-जो। तहप्पगारे-ऐसा स्थान है, जिसमें । सा०-गृहस्थ निवास करता है, उसमें। नो ठाणं वा३ चेइज्जा-साधु निवास न करे। मूलार्थ-गृहस्थों से युक्त उपाश्रय में निवास करना साधु के लिए कर्म बन्ध का कारण कहा है। क्योंकि उसमें गृहपति, उसकी पत्नी, पुत्रियां, पुत्रवधु , दास-दासियां आदि रहती हैं और कभी वे एक-दूसरी को मारें, रोकें या उपद्रव करें तो उन्हें ऐसा करते हुए देखकर मुनि के मन में ऊंचे-नीचे भाव आ सकते हैं। वह यह सोच सकता है कि ये परस्पर लड़ें, झगड़ें या लड़ाई-झगड़ा न करें आदि। इसलिए तीर्थंकरों ने साधु को पहले ही यह उपदेश दिया है कि वह गृहस्थ से युक्त उपाश्रय में न ठहरे। हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में भी परिवार से युक्त मकान में ठहरने का निषेध किया है। क्योंकि कभी पारिवारिक संघर्ष होने पर साधु के मन में भी अच्छे एवं बुरे संकल्प-विकल्प आ सकते हैं। वह किसी को कहेगा कि तुम मत लड़ो और किसी को संघर्ष के लिए प्रेरित करेगा। इस तरह वह साधना के पथ से भटककर झंझटों में उलझ जाएगा। यहां प्रश्न हो सकता है कि किसी को लड़ने से रोकना तो अच्छा है, फिर यहां उसका निषेध क्यों किया गया है? इसका समाधान यह है कि परिवार के साथ रहने के कारण उसका मन तटस्थ न रहकर राग-द्वेष से युक्त हो जाता है और इस कारण वह अपने अनुरागी व्यक्ति का पक्ष लेकर विरोधी को रोकना चाहता है और अनुरागी को भड़काता है, उसकी यह राग-द्वेष
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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