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________________ द्वितीय अध्ययन, उद्देशक १ १६७ मार्ग है। भिक्षु को गृहस्थ के कुटुम्ब के साथ बसते हुए कदाचित् शरीर का स्तम्भन या सूजन हो जाए या विसूचिका, वमन, ज्वर या शूलादि रोग उत्पन्न हो जाए, तो वह गृहस्थ करुणाभाव से प्रेरित होकर साधु के शरीर का तेल से, घी से, नवनीत (मक्खन) से और वसा से मालिश करेगा। और फिर उसे प्रासुक शीतल या उष्ण जल से स्नान कराएगा या लोध्र से, चूर्ण से तथा पद्म से एक अथवा अनेक बार उसके शरीर को घर्षित करेगा, तथा शरीर की स्निग्धता को उबटन आदि से दूर करेगा। उस मैल को साफ करने के लिए उसके शरीर का प्रासुक शीतल या उष्ण जल से प्रक्षालन करेगा। उसके मस्तक को धोएगा या उसे जल से सिंचित करेगा, अथवा अरणी के काष्ठ को परस्पर रगड़ कर अग्नि प्रज्वलित करेगा और उससे साधु के शरीर को गर्म करेगा। इस तरह गृहस्थ के परिवार के साथ उसके घर में ठहरने से अनेक दोष लगने की संभावना देखकर भगवान ने ऐसे स्थान पर ठहरने का निषेध किया है। .. हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु -साध्वी को ऐसे मकान में नहीं ठहरना चाहिए जिसमें गृहस्थ सपरिवार रहता हो और अपने परिवार एवं पशुओं के पोषण के लिए सब तरह के सुख-साधन एवं भोगोपभोग की सामग्री रखी हो। क्योंकि, गृहस्थ के साथ ऐसे मकान में ठहरने पर यदि कभी वह बीमार हो गया तो वह अनुरागी गृहस्थ अनेक तरह की सावद्य एवं निरवद्य औषधियों से , तेल आदि के लेपन से या अग्नि-जलाकर उसके शरीर को तपाकर उसे व्याधि से मुक्त करने का प्रयत्न करेगा और साधु को उसका प्रतिकार करना होगा। यदि वह प्रतिकार नहीं करेगा तो उसके संयम का नाश होगा। इसलिए साधु को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए , जिससे उसके महाव्रतों में किसी तरह का दोष लगे। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'वसा' शब्द का अर्थ चर्बी नहीं, किन्तु स्निग्ध (चिकनाहट से युक्त) औषधि विशेष है। और 'पसुभत्तपाणं' का अर्थ है-पशुओं के काम में आने वाले खाद्य पदार्थ, 'सखुड्ड' (क्षुद्र) शब्द से कुत्ता, बिल्ली आदि पशुओं का एवं पशु शब्द से गाय, भैंस आदि पशुओं का ग्रहण किया गया है। यह स्पष्ट है कि बीमार साधु को देखकर गृहस्थ के मन में दयाभाव विशेष रूप से जागृत होता है। इसलिए साधु को गृहस्थ के परिवार के साथ नहीं ठहरना चाहिए। इससे और भी अनेक दोष लगने की संभावना है। स्त्री आदि के साथ अधिक परिचय रहने से ब्रह्मचर्य में भी शिथिलता आ सकती है। यही कारण है कि आगम में साधु को स्त्री, पशु और नपुंसक युक्त मकान में और साध्वी को पुरुष, पशु और नपुंसक सहित मकान में रहने का निषेध किया गया है और इनसे रहित मकान में रहने वाले साधु को ही निर्ग्रन्थ कहा गया है । यह बात अलग है कि जिस मकान में केवल पुरुष ही रहते हों तो उस मकान में साधु और जिस मकान में केवल स्त्रियां निवसित हों तो उस मकान में साध्वियां ठहर सकती हैं। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- आयाणमेयं भिक्खुस्स सागारिए उवस्सए संवसमाणस्स इह १. 'नो इत्थीपसुपण्डगसंसत्ताई सयणासणाई सेवित्ता से निग्गन्थे। २ -कल्पसूत्र। - उत्तराध्ययन सूत्र, १६ ।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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