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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध १६२ चेइज्जा - कायोत्सर्गादि न करे। अह - अथ । पुण० - फिर जो ऐसा जाने कि यह ।' । पुरिसंतरकडे - पुरुषान्तर कृत है तो । चेइज्जा - उसमें कायोत्सर्गादि करे अर्थात् निवास कर ले वे । से भिक्खू वा वह साधु अथवा साध्वी से जं पुण-जो कि उपाश्रय को जाने कि । अस्संज० गृहस्थ । भि० भिक्षु के लिए। पीढं वा- पीठ । फलगं वा फलक । निस्सेणिं वा-लकड़ी की सीढ़ियें । उदूखलं वा अथवा ऊखल को । ठाणाओ ठाणं साहरइ - एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखता है। बहिया वा निण्णक्खू अथवा भीतर से बाहर निकालता है। तहप्पगारे - तो इस तरह के । उ०- उपाश्रय में जो । अपु० - अपुरुषान्तरकृत है। नो ठाणं वा ३ चेइज्जा-साधु निवास न करे। अह पुण-अथ यदि वह यह जाने कि । पुरिसं०- यह पुरुषान्तरकृत है तो । चेइज्जाT- उस में निवास करे । मूलार्थ - वह साधु या साध्वी उपाश्रय के विषय में यह जाने कि गृहस्थ ने साधु के लिए उपाश्रय के छोटे द्वार को बड़ा बनाया है और बड़े को छोटा कर दिया है, तथा भीतर से कोई पदार्थ बाहर निकाल दिया है तो इस प्रकार के उपाश्रय में जब तक वह अपुरुषान्तरकृत एवं अनासेवित है तब तक वहां कायोत्सर्गादि न करे, और यदि वह पुरुषान्तरकृत अथवा आसेवित हो गया है, तो उसमें स्थानादि कर सकता है। इसी प्रकार यदि कोई गृहस्थ साधु के लिए उदक से उत्पन्न होने वाले कन्द, मूल, पत्र, पुष्प, फल, बीज और हरी का एक स्थान से स्थानान्तर में संक्रमण करता है, या भीतर से किसी पदार्थ को बाहर निकालता है, तो इस प्रकार का उपाश्रय भी अपुरुषान्तरकृत और अनासेवित हो साधु के लिए अकल्पनीय है । और यदि पुरुषान्तरकृत अथवा आसेवित है तो उसमें वह कायोत्सर्गादि कर सकता है। इसी भांति यदि गृहस्थ साधु के लिए पीठ [ चौकी ] फलक और ऊखल आदि पदार्थों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखता है या भीतर से बाहर निकालता है, तो इस प्रकार के उपाश्रय में जो कि अपुरुषान्तरकृत और अनासेवित है तो साधु उसमें कायोत्सर्ग आदि कार्य न करे, और यदि वह पुरुषान्तरकृत अथवा आसेवित हो चुका है तो उसमें वह कायोत्सर्गादि क्रियाएं कर सकता है। हिन्दी विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि यदि किसी गृहस्थ ने साधु के निमित्त उपाश्रय के दरवाजे छोटे-बड़े किए हैं, या कन्द, मूल, वनस्पति आदि को हटाकर या कांट-छांट कर उपाश्रय को ठहरने योग्य बनाया है तथा उसमें स्थित तख्त आदि को भीतर से बाहर या बाहर से भीतर रखा है और इस तरह की क्रियाएं करने के बाद उस उपाश्रय में गृहस्थ ने निवास किया हो या अपने सामायिक संवर आदि धार्मिक क्रियाएं करने के काम में लिया हो तो साधु उस मकान में ठहर सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि जो मकान मूल से साधु के लिए बनाया हो, उस मकान में साधु किसी भी स्थितिपरिस्थिति में नहीं ठहर सकता। परन्तु, जो स्थान मूल से साधु के लिए नहीं बनाया गया है, केवल उसकी मुरम्मत की गई है या उसके कमरों या दरवाजों आदि की छोटाई - बड़ाई में कुछ परिवर्तन किया गया है या उसका अभिनव संस्कार किया गया है तो वह पुरुषान्तर होने के बाद साधु के लिए कल्पनीय है।
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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