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________________ ११७ प्रथम अध्ययन, उद्देशक ९ उसके लिए याचना करने को अपवाद मार्ग क्यों बताया गया है ? वनस्पति तो साधु बिना कारण भी मांग कर ला सकता है। इसका समाधान यह है कि अतिथि के लिए बनाए हुए पदार्थ उसके भोजन करने से पूर्व मांग कर लाना नहीं कल्पता इसलिए यह आदेश दिया गया है कि यदि बीमार के लिए उनकी आवश्यकता हो तो साधु अतिथि के भोजन करने के पूर्व भी उनकी याचना करके ला सकता है। आहार के विषय में और बातों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - से भिक्खू वा० अन्नयरं भोयणजायं पडिगाहित्ता सुब्भिं सुब्भिं भुच्चा दुब्भिं दुब्भिं परिट्ठवेइ, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा। सुब्भिं वा दुब्भिं वा सव्वं भुंजिज्जा, नो किंचिवि परिट्ठविज्जा ॥ ५२ ॥ छाया - स भिक्षुर्वा अन्यतरद् भोजनजातं प्रतिगृह्य सुरभि २ भुक्त्वा दुरभि २ परिष्ठापयति (परित्यजेत्.) मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् । सुरभि वा दुरभि वा सर्वं भुंजीत न किंचिदपि परिष्ठापयेत् । पदार्थ - से- वह । भिक्खू वा० - साधु अथवा साध्वी गृहपति कुल में प्रवेश करने पर । अन्नयरं - कोई एक साधु । भोयणजायं भोजन को । पडिगाहित्ता ग्रहण कर उसमें से । सुब्भिं २ - अच्छे २ पदार्थ । भुच्चाखाकर । दुब्भिं २- खराब या निकृष्ट पदार्थों को। परिट्ठवेइ-फेंक देता है तो उसे । माइट्ठाणं - मातृस्थान- माया का। संफासे-स्पर्श होता है अतः । एवं साधु इस प्रकार । नो करिज्जा-न करे, किन्तु । सुब्धिं वा सुगन्ध युक्त । दुभं वा दुर्गन्ध युक्त अर्थात् अच्छे-बुरे । सव्वं सब तरह के भोजन को । भुंजिज्जा - खा ले और । किंचिविकिंचिन्मात्र भी। नो परिट्ठविज्जा - फैंके नहीं। - मूलार्थ - गृहस्थ के घर में जाने पर कोई साधु या साध्वी वहां से भोजन लेकर, उसमें से अच्छा-अच्छा खाकर शेष रूक्ष आहार को बाहर फैंक दे तो उसे मातृस्थान (माया) का स्पर्श होता है । इसलिए उसे ऐसा नहीं करना चाहिए, सुगन्धित या दुर्गन्धित जैसा भी आहार मिला है, साधु उसे समभाव पूर्वक खा ले, किन्तु उसमें से किंचिन्मात्र भी फैंके नहीं । हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को रस (स्वाद) की आसक्ति के वश लाए हुए आहार में से अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट पदार्थ को ग्रहण करके, शेष अस्वादिष्ट पदार्थों को फैंक नहीं देना चाहिए। उसे सरस एवं नीरस जैसा भी आहार उपलब्ध हुआ है, उसे अनासक्त एवं समभाव पूर्वक खा लेना चाहिए। क्योंकि साधु का आहार स्वाद के लिए नहीं, संयम का परिपालन करने के लिए होता है। अत: उसे लाए हुए आहार में स्वाद की दृष्टि से अच्छे-बुरे का भेद करके नहीं, बल्कि सबको समभाव पूर्वक, बिना स्वाद लिए खा लेना चाहिए । अब पानी के विषय में वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - से भिक्खू वा २ अन्नयरं पाणगजायं पडिगाहित्ता पुष्कं २ आविता कसायं २ परिट्ठवेइ, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा । पुप्फं
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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