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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध छाया - स भिक्षुर्वा अथ यत् मांसं वा मत्स्यं वा भज्यमानं ( पच्यमानं ) प्रेक्ष्य तैलपूपं वा आदेशाय-उपसंस्क्रियमाणं प्रेक्ष्य न शीघ्रं २ उपसंक्रम्य अवभाषेत ( याचेत) नान्यत्र ग्लाननिश्रया । ११६ पदार्थ - से वह । भिक्खू वा साधु अथवा साध्वी गृहपति कुल में प्रवेश करने पर । से जं० - वह यह जाने कि। आएसाए- पाहुनों के लिए। मंसं वा मांस । मच्छं वा अथवा मत्स्य को । भज्जिज्जमाणं पकाते हुए। पेहाए-देखकर । वा अथवा । तिल्लपूयं तैल प्रधान अपूप (पूड़े) - अर्थात् तेल के पूड़े। उवक्खडिज्नमाणंबनाते हुए। पेहाए-देखकर। खद्धं २- अति शीघ्रता से । उवसंकमित्तु पास जाकर । नो ओभासिज्जा- न मांगे । नन्नत्थ - इतना विशेष है। गिलाणणीसाए रोगी के लिए मांग सकता है। मूलार्थ — गृहपति कुल में प्रवेश करने पर साधु या साध्वी इस प्रकार जाने कि गृहस्थ अपने यहां आए हुए किसी अतिथि के लिए मांस और मत्स्य तथा तेल के पूड़े पका रहा है। उस समय उक्त पदार्थों को पकाते हुए देख कर वह अतिशीघ्रता से वहां जाकर उक्तविध आहार की याचना न करे। यदि किसी रोगी के लिए आवश्यकता हो तो उसके लिए उनकी याचना कर सकता है। हिन्दी विवेचन प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि कोई गृहस्थ अपने घर पर आए हुए अतिथि का आतिथ्य सत्कार करने के लिए कोई पदार्थ तैयार कर रहा हो तो साधु उसे देखकर शीघ्रता से उसकी याचना करने के लिए न जाए। यदि कोई बीमार साधु है और उसके लिए वह पदार्थ लाना है, तो वह उसे मांगकर ला सकता है। अतिथि के भोजन करने के पूर्व नहीं लाना यह उत्सर्ग मार्ग है और बीमार के लिए आवश्यकता पड़ने पर अतिथि के भोजन करने से पहले भी ले आना अपवाद मार्ग है। प्रस्तुत सूत्र में तेल के पूड़ों के साथ मांस एवं मत्स्य शब्द का प्रयोग हुआ है और वृत्तिकार ने इसका मांस एवं मत्स्य अर्थ ही किया है और अपवाद मार्ग में ग्राह्य बताया है । परन्तु, बालावबोध के लेखक उपाध्याय पार्श्व चन्द्र ने वृत्तिकार के विचारों की आलोचना की है, उन्हें आगम से विरुद्ध बताया है। उपाध्याय जी का कहना है कि सूत्रकार के युग में कुछ वनस्पतियों के लिए मांस एवं मत्स्य शब्द का प्रयोग होता था। आज उक्त शब्द का उस अर्थ में प्रयोग नहीं होता है । अतः, इससे उक्त शब्दों का वर्तमान में प्रचलित अर्थ करना उचित नहीं है। जब हम वृत्तिकार एवं उपाध्याय जी के विचारों पर गहराई से विचार करते हैं। तो उपाध्याय जी कामत ही आगम के अनुकूल प्रतीत होता है। प्रस्तुत सूत्र में बीमार के लिए उक्त आहार लाने का उल्लेख किया गया है । और तेल के पूए एवं मत्स्य आदि बीमार के लिए पथ्यकारक नहीं हो सकते और पूर्ण अहिंसक साधु की वृत्ति के भी अनुकूल नहीं हैं। जो मुनि समस्त सावध व्यापार का त्यागी है, वह सामिष आहार कैसे ग्रहण कर सकता है। इसलिए उक्त शब्द वनस्पति के ही परिचायक हैं और समय की गति के साथ उनके उस युग में प्रचलित अर्थ का आज लोप हो गया है। यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि यदि उक्त शब्द वनस्पति के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं, तो फिर
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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