________________
प्रथम अध्ययन, उद्देशक ७
सकषायेण वा मात्रेण वा शीतोदकेन वा संभुक्त्वा - मिश्रयित्वा आहृत्य दद्यात् तथाप्रकारं पानकजातम् अप्रासुकं• एतत् खलु सामग्रयम् । इति ब्रवीमि ।
९७
पदार्थ- से-वह । भिक्खू वा० - साधु अथवा साध्वी गृहपति कुल में प्रवेश करने पर। से- वह । जं- फिर | पाणगजायं-अचित पानी के भेदोपभेद को । जाणिज्जा- जाने यथा । अणंतरहियाए पुढवीएसचित्त पृथ्वी पर जाव - यावत् । संताणए - सन्तानक- मकड़ी के जाले आदि पर । उद्धट्टु २ - अन्य भाजन से निकाल कर २ । निक्खित्ते सिया- उन सचित्त पृथ्वी आदि पर रखा हुआ हो । असंजए- असंयत-गृहस्थ । भिक्खुपडियाए - साधु की प्रतिज्ञा से साधु के लिए। उदउल्लेण वा जल टपकते हुए हाथों से। ससिणिद्धेण वा-अथवा गीले हाथों से । सकसाएण वा मत्तेण वा अथवा सचित्त पृथ्वी आदि से अवगुंठित बर्तन से, अथवा । सीओदगेण वा - सचित्त जल से । संभोइत्ता- मिश्रित-मिला करके । आहट्टु - लाकर । दलइज्जा - दे तो साधु । तहप्पगारं-इस प्रकार के । पाणगजायं - जल को । अफासुयं० - अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे। एयं यह । खलुनिश्चय ही। सामग्गियं-साधुत्व है अर्थात् साधु का समग्र आचार है । त्तिबेमि - ऐसा मैं कहता हूँ ।
मूलार्थ - जल के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर साधु या साध्वी जल के सम्बन्ध यदि यह जान ले कि गृहस्थ ने प्रासुक जल को सचित्त पृथ्वी से लेकर मकड़ी आदि के जालों से युक्त पदार्थ पर रखा है या उसने उसे अन्य सचित्त पदार्थ से युक्त बर्तन से निकाल कर रखा है या वह उन हाथों से दे रहा है जिससे सचित्त जल टपक रहा है या उसके हाथ जल से भीगे हुए हैं ऐसे हाथों से, या सचित्त पृथ्वी आदि से युक्त बर्तन से या प्रासुक जल के साथ सचित्त जल मिलाकर दे तो इस प्रकार के जल को अप्रासुक जानकर साधु उसे ग्रहण न करे। यही संयमशील मुनि का समग्र आचार है। ऐसा मैं कहता हूँ ।
हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि किसी गृहस्थ के घर पर प्रासुका सचित्त पृथ्वी आदि पर रखा हुआ है, या उसमें सचित्त जल मिलाया जा रहा है, या उस सचित्त जल से गीले हाथों से या सचित्त पृथ्वी या रज आदि से भरे हुए हाथों से दे रहा है, तो साधु को वह पानी नहीं लेना चाहिए। क्योंकि उससे अन्य जीवों की हिंसा होती है । अतः साधु को वही प्रासुक पानी ग्रहण करना चाहिए जो सचित्त पृथ्वी, पानी, अग्नि, वनस्पति आदि पर न रखा हो और गृहस्थ भी इन पदार्थों से युक्त न हो ।
'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें ।
॥ सप्तम उद्देशक समाप्त ॥