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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक ७ अशनं वा ४ वन-लाभे सति न० प्रति । एवं त्रसकायमपि । 1 ९३ . पदार्थ - से- वह । भिक्खू वा- साधु अथवा साध्वी गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होने पर । से- वह । जं०यदि इस प्रकार जाने कि । असणं वा ४- अशनादि चतुर्विध आहार। वणस्सइकायपइट्ठियं वनस्पतिकाय पर रखा हुआ है तो। तहप्पगारं - इस प्रकार के । वण० - वनस्पति काय पर प्रतिष्ठित । असणं वा ४- अशनादि चतुर्विध आहार को। लाभे संते-मिलने पर भी । नो पडि० - साधु ग्रहण न करे । एवं तसकायमवि- इसी प्रकार त्रसकाय के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। मूलार्थ - साधु या साध्वी, भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करते हुए यदि यह देखे कि गृहस्थ के वहां अन्नादि चतुर्विध आहार वनस्पति काय पर रखा हुआ है, तो ऐसे वनस्पतिकाय पर प्रतिष्ठित अंशनादि को सांधु प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे । इसी प्रकार त्रसकाय के विषय में भी जान लेना चाहिए। ן हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि गृहस्थ के घर में आहार वनस्पतिया त्रस प्राणी (द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों) पर रखा हो या वनस्पति आदि खाद्य पदार्थों पर रखी हो तो साधु को उस आहार को ग्रहण नहीं करना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि साधु के निमित्त स्थावर एवं त्रस किसी भी प्राणी को कष्ट तो साधु को ऐसा आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए । सूत्रकार ने आहार के अन्य १ दोषों का अन्यत्र वर्णन किया है और वृत्तिकार ने उनका प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति में ही उल्लेख कर दिया है। आहार की तरह पानी भी जीवन के लिए आवश्यक है और नदी, तालाब, कुएं आदि का जल सचित्त होता है। अतः साधु को कैसा पानी ग्रहण करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते मूलम् - से भिक्खू वा २ से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा तंजहाउस्सेइमं वा १ संसेइमं वा २ चाउलोदगं वा ३ अन्नयरं वा तहप्पगारं पाणगजायं अहुणाधोयं अणंबिलं अव्वुक्कंतं अपरिणयं अविद्धत्थं अफासुयं जाव नो डिग्गाहिज्जा अह पुण एवं जाणिज्जा चिराधोयं अंबिलं वुक्कंतं परिणयं विद्धत्थं फासुयं पडिग्गाहिज्जा | से भिक्खू वा० से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहातिलोदगं वा ४ तुसोदगं वा ५ जवोदगं वा ६ आयामं वा ७ सोवीरं वा ८ १ अत्र च वनस्पति काय प्रतिष्ठितमित्यादिना निक्षिप्ताख्या एषणादोषोऽभिहितः, एवमन्येऽप्येषणादोषायथासम्भवं सूत्रेष्वेवायोज्याः । ते चामी'संकिय १, मक्खियं २, निक्खित्त ३, पिहिय ४, साहरिय ५, दायगु ६ म्मीसे ७, अपरिणय ८, , लित्त ९, छड्डिय १०, एसणा दोसा दस हवंति १० । ॥१ ॥ तत्र शंकितमाधाकर्मादिना १-प्रक्षितमुदकादिना २ निक्षिप्तं पृथिवीकायादौ ३ पिहितं बीजपूरकादिना ४ साहरियंतिमात्रकादेस्तुषाद्यदेयमन्यत्र सचित्त पृथिव्यादौ संहृत्य तेन मात्रकादिना यद् ददाति तत् संहृतमित्युच्यते ५ दायगत्तिदाताबालवृद्धाद्ययोग्यः ६ उन्मिश्रं सचित्तमिश्रम् ७ अपरिणतमितियद्देयं न सम्यगचित्तीभूतं दातृग्राहकयोर्वा न सम्यग्भावोपेतं ८ लिप्तंवसादिना । ९ छड्डियंति परिशाटत्वादि १० त्येषणा दोषाः । - आचाराङ्ग वृत्ति
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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