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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक ७ भी अप्रासुक जान कर स्वीकार न करे। इसी प्रकार अग्निकाय पर प्रतिष्ठित अशनादि चतुर्विध आहार को भी अप्रासुक जानकर उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए। केवली भगवान कहते हैं कि यदि गृहस्थ भिक्षु के निमित्त अग्नि में ईन्धन डालकर अथवा प्रज्वलित अग्नि में से ईन्धन निकाल कर या अग्नि पर से भोजन को उतार कर, इस प्रकार से आहार दे तो साधु ऐसे आहार को अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे। हिन्दी विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि मिट्टी के लेप से बन्द किए खाद्य पदार्थ के बर्तन में से उक्त लेप को तोड़कर गृहस्थ कोई पदार्थ दे तो साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए। क्योंकि इससे पृथ्वीकाय की एवं उसके साथ अन्य अप्कायिक आदि जीवों की हिंसा होगी और उस बर्तन में अवशिष्ट पदार्थ की सुरक्षा के लिए उस पर पुनः मिट्टी का लेप लगाने के लिए नया आरम्भ करना होगा। इस तरह पश्चात् कर्म दोष भी लगेगा। इसी तरह सचित्त पृथ्वी, पानी एवं अग्नि पर रखे हुए बर्तन को उतारते हुए या ऐसा ही कोई अन्य अग्नि सम्बन्धी आरम्भ करते हुए साधु को आहार दे तो उस आहार को भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिससे छः काय एवं ६ में से किसी भी एक कायिक जीवों की हिंसा होती हो तो ऐसा आहार साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए। . . अब वायुकाय की यतना के सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-से भिक्खूवा २ जावसेजं असणं वा ४ अच्चुसिणं, अस्संजए भि. सुप्पेण वा विहुयणेण वा तालियंटेण वा पत्तेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पिहणेण वा पिहणहत्थेण वा चेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्थेण वा मुहेण वा फुमिज वा वीइज्ज वा, से पुव्वामेव आलोइज्जा आउसोत्ति वा भइणित्ति वा! मा एतं तुमं असणं वा अच्चुसिणं सुप्पेण वा जाव फुमाहि वा वीयाहि वा, अभिकंखसि मे दाउं, एमेव दलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो सुप्पेण वा जाव वीइत्ता आहटु दलइजा तहप्पगारं असणं वा ४ अफासुयं वा नो पडि०॥३९॥ छाया- स भिक्षुर्वा२ अथ यत् अशनं वा अत्युष्णं असंयतः भिक्षुप्रतिज्ञया सूर्पण वा वीजनेन वा तालवृन्तेन वा पत्रेण वा शाखया वा शाखाभंगेन वा वर्हेण वा (पिच्छेण वा) वहकलापेन वा (पिच्छहस्तेन वा) चेलेन-वस्त्रेण वा चेलकर्णेन-वस्त्रकर्णेन वा हस्तेन वा मुखेन वा फूत्कुर्याद् वा वीजयेद् वा, स पूर्वमेव आलोकयेद्-(आलोक्य) आयुष्मन्निति वा भगिनि! इति वा मैवं त्वं अशनं वा ४ अत्युष्णं सूर्पण वा यावत् फूत्कुरु वीजय वा, अभिकांक्षसि मे दातुं एवमेव ददस्व, स तस्यैवं वदतः परः सूर्पण वा यावत् वीजयित्वा आहृत्य दद्यात् तथाप्रकारं अशनं वा ४ अप्रासुकं न प्रतिगण्हीयात्। ___पदार्थ-से-वह। भिक्खू वा- साधु अथवा साध्वी, गृहपति कुल में प्रवेश करने पर।से जं०- यदि
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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