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________________ ९० श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध इस प्रकार के। असणं वा-अशनादिक चतुर्विध आहार के। लाभे सं०-मिलने पर भी साधु उसे ग्रहण न करे। केवली-केवली भगवान कहते हैं कि।अस्संजए-असंयत-गृहस्थ। भि०-भिक्षु-साधु के लिए।मट्टिओलित्तंमिट्टी से लिप्त भाजन में रखा हुआ। असणं वा ४-अशनादिक चतुर्विध आहार, उसे-अर्थात् भाजन को। उब्भिंदमाणे-उद्भेदन करता हुआ। पुढविकायं-पृथ्वीकाय के जीवों का। समारंभेज्जा-समारम्भ करता है। तह-तथा।तेउवाउवणस्सइतसकायं-अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय के जीवों का।समारंभिजा-समारम्भ करता है। पुणरवि-फिर। उल्लिंपमाणे-उस भाजन कोशेष द्रव्य की रक्षा के लिए लेपन करता हुआ।पच्छाकम्म करिजा-पश्चात् कर्म करता है। अह-अथवा। भिक्खूणं-भिक्षुओं-साधुओं को। पुव्वो-पूवोपदिष्ट प्रतिज्ञा आदि है। जाव-यावत्। तहप्पगारं-इस प्रकार का। मट्टिओलित्तं-मिट्टी से अवलिप्त। असणं वा-अशनादिक चतुर्विध आहार है। लाभे०-मिलने पर साधु उसे ग्रहण न करे। से-वह। भिक्खू-साधु या साध्वी गृहपति कुल में प्रवेश करने पर। से जं-यदि इस प्रकार जाने कि। असणं वा ४-अशनादिक चतुर्विध आहार। पुढविकायपइट्ठियं-सचित्त पृथ्वी पर प्रतिष्ठित-रखा हुआ है। तहप्पगारं-उस प्रकार के।असणं वा-अशनादिक चतुर्विध आहार को।अफासुयं०-अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे। से भिक्खू-वह साधु या साध्वी। जं०-जो यह जाने कि।असणं वा ४-अशनादिक चतुर्विध आहार। आउकायपइट्ठियं चेव-सचित्त पानी पर रखा हुआ है तो उसे भी पूर्व की भांति अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे। एवं-इसी प्रकार। अगणिकायपइट्ठियं-अग्निकाय पर प्रतिष्ठित-रखे हुए आहार को भी अप्रासुक जानकर। लाभेल-मिलने पर भी उसे ग्रहण न करे। केवली-केवली भगवान कहते हैं। अस्संजए-असंयत-गृहस्थ। भि०भिक्षु के लिए। अगणिं-अग्नि में। उस्सक्किय-ईन्धन डाले। निस्सक्किय-अथवा प्रज्वलित अग्नि में से ईन्धन निकाले। ओहरिय-अग्नि पर रखे हुए भाजन को नीचे उतारे। आहटु-इस प्रकार आहार लाकर। दलइज्जासाधु को दे। अह-अथवा। भिक्खूणं-भिक्षुओं को पूर्वोपदिष्ट प्रतिज्ञा है। जाव-यावत् । नो पङि-वह उसे ग्रहण न करे। मूलार्थ–साधु या साध्वी भिक्षा के निमित्त गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर यदि यह देखे कि अशनादि चतुर्विध आहार मिट्टी से लीपे हुए बर्तन में स्थित है, इस प्रकार के अशनादि चतुर्विध आहार को, मिलने पर भी साधु ग्रहण न करे। क्योंकि भगवान ने इसे कर्म आने का मार्ग कहा है। इसका कारण यह है कि गृहस्थ, भिक्षु के लिए मिट्टी से लिप्त अशनादि के भाजन को उद्भेदन करता हुआ पृथ्वीकाय का समारम्भ करता है, तथा अप्-पानी, तेज-अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस काय का समारम्भ करता है, फिर शेष द्रव्य की रक्षा के लिए उस बर्तन का पुनः लेपन करके पश्चात् कर्म करता है, इसलिए भिक्षुओं को तीर्थंकर आदि ने पहले ही कह दिया है कि वे मिट्टी से लिप्त बर्तन में रखे हुए अशनादि को ग्रहण न करें। तथा गृहपति कुल में प्रविष्ट हुआ भिक्षु यदि यह जाने कि अशनादि चतुर्विध आहार सचित्त मिट्टी पर रखा हुआ है तो इस प्रकार के आहार को अप्रासुक जानकर साधु ग्रहण न करे। वह भिक्षु यदि यह जाने कि अशनादि चतुर्विध आहार अप्काय पर रखा हुआ है तो उसे
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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